विकास गुप्ता
बेशक यह देश के चिंतित और आशंकित नागरिकों के नाम संबोधन था। प्रधानमंत्री मोदी ने संकट और महामारी के
इस दौर में सरकार का एक महत्त्वपूर्ण फैसला जनता के साथ साझा किया है। उन्होंने देश को डराने या पलायन
करने की कोशिश नहीं की है, बल्कि जनता का सहयोग मांगा है। कोरोना वायरस के महासंकट से लड़ने में यह
संबोधन नई ताकत, नई उम्मीद और नई लामबंदी दे सकता है। प्रधानमंत्री ने न तो आपातकाल का कोई संकेत
दिया और न ही पूरे लॉकडाउन की जरूरत आंकी, सरकार ने हंटर की तरह कर्फ्यू की मार का भी प्रयोग नहीं किया
है। चूंकि कोरोना महामारी 176 देशों को अपनी चपेट में ले चुकी है, संक्रमण से मौतें 10,000 का आंकड़ा पार
करने को है और भारत में भी कोरोना 20 राज्यों तक फैल चुका है और 215 लोग संक्रमित भी हो गए हैं।
महामारी का विस्तार लगातार जारी है, लिहाजा प्रधानमंत्री ने रविवार, 22 मार्च को सुबह 7 बजे से रात्रि 9 बजे
तक ‘जनता कर्फ्यू’ का आह्वान किया है। यानी समूचा देश 14 घंटे के लिए अपने-अपने घरों में रहेगा। यह दंगों,
हत्याकांड या आतंकी हमले के बाद का कर्फ्यू नहीं है, अलबत्ता सार्वजनिक सन्नाटा और हलचलहीनता जरूर रहेगी।
इसका मर्म स्वैच्छिक है। जिन डाक्टरों, नर्सों, मेडिकल स्टाफ, मीडिया वालों और पुलिसकर्मियों आदि को संकट की
इस घड़ी में भी जनसेवा का दायित्व निभाना है, वे कर्फ्यू के बावजूद सक्रिय और सार्वजनिक रहेंगे। ये कोई सरकारी
बंदिशें नहीं हैं, लेकिन प्रधानमंत्री ने संकल्प और संयम का आह्वान किया है, हमसे हमारा कुछ समय मांगा है।
सिर्फ इतनी-सी अपेक्षा है कि लोग अपने घरों में ही रहें। वैसे भी छुट्टी का दिन है। यदि उस दिन हम अपने
परिजनों के साथ ही वक्त बिताएं, तो कौन-सी आफत आ जाएगी, लेकिन कुछ बंद बुद्धि इस फैसले को भी गरिया
रहे हैं। यह सामाजिक दूरी रखने और भीड़ से बचने का एक राष्ट्रीय प्रयोग भी साबित हो सकता है, क्योंकि
प्रधानमंत्री भी चिंतित हैं कि 137 करोड़ की आबादी का अपना देश कोरोना महामारी के सामुदायिक प्रसार की
चपेट में न आए। एक दिन के प्रयोग से भारत खुद की परीक्षा भी ले सकेगा कि उसका आत्मसंयम कितना मजबूत
है और भविष्य की चुनौतियों के मद्देनजर वह मानसिक और व्यावहारिक तौर पर कितना तैयार है? दरअसल
प्रधानमंत्री के संबोधन से देश का संकल्प, वृत्तांत और तैयारी एक नए स्तर तक पहुंच सकते हैं। कैबिनेट की बैठक
कर प्रधानमंत्री ने सभी मंत्रियों से भी आग्रह किया है कि वे भी ‘जनता कर्फ्यू’ का पालन करें। बेशक कोरोना के
दुष्प्रभाव दोनों विश्व युद्धों से भी घातक और व्यापक हैं। विश्व युद्धों के दौरान इतने देश युद्ध की विभीषिकाओं
से प्रभावित नहीं हुए, जितना कोरोना प्रभावित कर रहा है। यह प्रधानमंत्री मोदी का ही मानना नहीं है, बल्कि
जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का भी मानना है। बहरहाल कोरोना वायरस के इस दौर में कर्फ्यूनुमा माहौल
इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि आम भारतीय की प्रवृत्ति रही है कि ऐसी महामारी के प्रति भी वह गंभीर नहीं हो
पाता। प्रधानमंत्री का कहना है कि इस तरह निश्चिंत होने की सोच भी सही नहीं है। विश्व महासंकट के दौर में है,
पूरी मानव जाति पर संकट मंडराया है, लिहाजा खुद को बचाने और विश्व को भी बचाने का संकल्प लेना जरूरी है।
बेशक भारत में कोरोना से अभी तक 5 ही मौतें हुई हैं, लेकिन इस वायरस की मार कब विस्फोट बनकर सामने
आएगी, यह हम इटली, ईरान, स्पेन आदि देशों के उदाहरण से देख चुके हैं। दरअसल सतर्कता में ही चेतावनी
निहित है। डाक्टर और विश्व स्वास्थ्य संगठन बार-बार दोहरा रहे हैं कि भारत में कोरोना का सामुदायिक विस्तार
हो गया, तो हालात किसी त्रासदी से कम नहीं होंगे, क्योंकि हमारी आबादी बहुत है। हमारी इतनी चिकित्सीय
तैयारियां संभव नहीं हैं, हालांकि प्रयास युद्ध स्तर पर किए जा रहे हैं। दरअसल प्रधानमंत्री का संबोधन परिवार के
एक मुखिया की तरह था, जो किसी भी तरह के नुकसान को तैयार नहीं है। कोरोना के कुल फलितार्थ क्या होंगे,
अभी आकलन नहीं किया जा सकता, हालांकि प्रधानमंत्री ने वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के नेतृत्व में एक कार्यबल
गठित करने की भी घोषणा की है, जो आर्थिक चुनौतियों को देखेगा और आम भारतीय के लिए मार्ग सुझाएगा।
बहरहाल रविवार को सभी नागरिक घर पर रहें, खासकर बुजुर्गों और बच्चों के लिए आने वाले 15-20 दिन का
वक्त बहुत नाजुक है। राजनीति और आलोचनाएं तो उसके बाद भी जारी रह सकती हैं।