आतंकवाद का नया प्रयोग

asiakhabar.com | March 7, 2020 | 5:38 pm IST
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दिल्ली में पिछले दिनों जो हुआ, उससे समाजशास्त्रियों में एक नई बहस छिड़ गई है। आज तक आतंकवादी,
व्यक्ति विशेष होता था या फिर आतंकवादियों का समूह होता था, लेकिन समूह में भी हर आतंकवादी की अपनी
व्यक्तिगत पहचान होती थी, लेकिन दिल्ली में पहली बार आतंकवादी भीड़ सामने आई है। इस आतंकवादी भीड़ ने
जिस प्रोफेशनल और अमानवीय तरीके से हत्याएं की हैं, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह साधारण दंगाई भीड़
नहीं थी। दिल्ली में इस आतंकवादी भीड़ का मास्टर माइंड कौन था, इसको लेकर खोजबीन चल ही रही है, लेकिन
धीरे-धीरे मामला आम आदमी पार्टी के निगम पार्षद ताहिर हुसैन के इर्द-गिर्द आता जा रहा है। ताहिर हुसैन का घर
एक प्रकार से परंपरागत हथियारों का जखीरा नजर आ रहा था।
तेजाब, पत्थर इत्यादि के अतिरिक्त जिस प्रकार से बड़ी-बड़ी गुलेल तैयार की गई थी, उसकी तैयारी के लिए पूरी
योजना और समय की जरूरत थी। कहीं ऐसा तो नहीं कि शाहीन बाग और यह तैयारी साथ-साथ ही चल रहे हों?
शाहीन बाग इस योजना का पहला हिस्सा हो और यह आतंकवादी भीड़, उसका दूसरा हिस्सा। समय और स्थान का
चयन आतंकवादियों ने अति सावधानी से किया लगता है, लेकिन असली प्रश्न यह है कि क्या ये आतंकवादी दंगे
केवल नागरिकता संशोधन अधिनियम का विरोध करने के लिए ही थे या इसका कोई बड़ा उद्देश्य था? क्योंकि
यदि उद्देश्य केवल सीएए का विरोध करना होता तो इंटेलिजेंस ब्यूरो के अंकित शर्मा को ताहिर हुसैन के घर के
अंदर खींच कर चार सौ बार चाकू मार कर हत्या की जरूरत न पड़ती।
न्यायालय के किसी न्यायाधीश ने कहीं टिप्पणी की है कि पुलिस को प्रोफेशनल तरीके से काम करना चाहिए,
लेकिन शायद उन्होंने इस नए आतंकी प्रयोग में की गई हत्याओं की ओर ध्यान नहीं दिया होगा। पुलिस ने
प्रोफेशनल तरीके से काम किया या नहीं, इसका मूल्यांकन तो इस प्रोफेशन में काम करने वाले ही कर सकते हैं,
लेकिन हत्यारों ने नागरिकता संशोधन अधिनियम के तथाकथित विरोध में की गई हत्याओं को सचमुच अत्यंत
प्रोफेशनल तरीके से किया लगता है। बकरे को हलाल करने में जिनको सिद्धहस्तता प्राप्त है, उन्होंने आदमियों पर
भी वही प्रयोग किया।
साधारण तरीके से नहीं मारा बल्कि एक-एक अंग काट कर मारा। उनकी इस प्रोफेशनल योग्यता की तारीफ करने
वाले भी मिलेंगे। एक टीवी चैनल ने तो बाकायदा ताहिर हुसैन का साक्षात्कार प्रसारित किया और अपनी पीठ पर
सेक्युलिरिज्म का लेपन करवाया। दक्षिणी कश्मीर में और नक्सल प्रभावित इलाकों में आतंकवादी और नक्सलवादी
इसी क्रूरता से हत्याएं करते हैं क्योंकि इससे आतंक का व्यापक प्रभाव होता है। एक बात स्पष्ट है। नागरिकता
संशोधन अधिनियम के विरोध का बहाना बना कर देश में एक नया आतंकवादी प्रयोग किया गया लगता है। इस
नए प्रयोग में कोई आतंकवादी अकेला इक्का-दुक्का आतंकवादी घटना को अंजाम नहीं देता और न ही वह आत्महंता

बन कर अपने आपको बम से उड़ा कर कुछ लोगों को मारता है। इस नए प्रयोग में वह स्वयं पीछे रहता है और
भीड़ को आतंकवादी के रूप में इस्तेमाल करता है। इसका लाभ है।
आतंकवादी की पहचान निश्चित होती है, लेकिन आतंकवादी भीड़ की पहचान नहीं होती। आतंकी का आतंक सीमित
होता है, लेकिन आतंकवादी भीड़ के आतंक का क्षेत्र व्यापक होता है। किसी एक आतंकवादी को उसका अपराध
सिद्ध कर सजा दिलवाना संभव होता है, लेकिन भीड़ को अमानवीय अपराधों के बावजूद सजा दिलवाना आसान
नहीं होता। किसी एक या एक से अधिक आतंकवादी के समर्थन में कोई राजनीतिक दल खड़ा नहीं हो सकता,
लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते आतंकवादी भीड़ का समर्थन कुछ राजनीतिक दल करने लगते हैं, जैसा
दिल्ली में आतंकवादी भीड़ के मामले में हो रहा है।
आतंकवादी भीड़ हथियारों का प्रयोग भी बडे़ पैमाने पर कर सकती है। दिल्ली में आतंकवादी भीड़ ने व्यापक पैमाने
पर यही किया। आम आदमी पार्टी के कुछ लोग स्पष्ट ही भीड़ के आतंकवादी प्रयोग में जुटे हुए थे। उदाहरण के
लिए प्रयोग के प्रथम चरण शाहीन बाग में अमातुल्ला खां और प्रयोग के दूसरे चरण में ताहिर हुसैन, लेकिन अभी
यह कहना उचित नहीं होगा कि आम आदमी पार्टी इस प्रयोग का किसी नीति के तहत समर्थन कर रही थी।
अलबत्ता यदि इस पार्टी के लोग प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से इन लोगों की सहायता करने लगे तब निश्चय ही वह संदेह के
घेरे में आ जाएंगे। यही स्थिति कांग्रेस की है।
कांग्रेस के भीतर की इतालवी लॉबी तो प्रत्यक्ष ही इस प्रयोग का समर्थन करती दिखाई देती है। कांग्रेस की अध्यक्ष
सोनिया गांधी ने तो कहा ही था कि अब हमें आर-पार की लड़ाई लड़नी है। वे इटली से दिल्ली आकर किससे आर-
पार की लड़ाई लड़ रही हैं, आखिर यह प्रश्न तो उठेगा ही। उसी के एक-दूसरे सिपाहसलार हर्ष मंदेर कहते हैं कि
अब उच्चतम न्यायालय पर भी भरोसा नहीं है, हमें लड़ाई सड़कों पर लड़नी पड़ेगी।
दिल्ली में तीन दिन इन लोगों ने सड़कों पर जो आतंकवादी लड़ाई लड़ी वह आईएसआईएस के प्रशिक्षित गुरिल्लाओं
जैसी लड़ाई थी। कहना न होगा कि सत्ता छिन जाने की निराशा से उत्पन्न हुए अवसाद के कारण कुछ राजनीतिक
दलों ने भीड़ के आतंकवाद को लोकतांत्रिक राजनीति का नया हथियार बनाया है, जिसकी गहराई से जांच की जानी
चाहिए।


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