प्रधानमंत्री के अधूरे जवाब

asiakhabar.com | February 8, 2020 | 4:12 pm IST
View Details

संसद के दोनों सदनों में राष्ट्रपति अभिभाषण पर प्रधानमंत्री के जवाब एक संसदीय औपचारिकता का हिस्सा हैं।
सदनों में विपक्ष जो सवाल उठाता है, जो आशंकाएं और आपत्तियां व्यक्त करता है, प्रधानमंत्री जवाबों के जरिए
उन्हें संबोधित करने की कोशिश करते हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी ऐसा ही किया है। अपनी सरकार की उपलब्धियों,
फैसलों और नीतियों के खुलासे किए हैं। यह कवायद असंख्य बार की जा चुकी है कि कितने करोड़ लोगों के बैंक
खाते खुलवाए, कितने करोड़ शौचालय बनवाए, कितने करोड़ मुफ्त गैस कनेक्शन बांटे और कितने करोड़ गरीबों के
घर बनवाए। देश इन ब्यौरों को आत्मसात् कर चुका है। प्रधानमंत्री मोदी ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में अनुच्छेद
370, 35-ए के साथ-साथ कई और बदलावों का जिक्र भी किया। तीन तलाक कानून का भी उल्लेख किया। राम
जन्मभूमि विवाद समाप्त करने में अपनी भूमिका की पीठ ठोकी। पूर्वोत्तर राज्यों में शांति और स्थिरता लाने वाले
प्रयासों की सराहना की। बेशक देश बदल रहा है, कई महत्त्वपूर्ण प्रयोग और प्रयास भी किए गए हैं, लेकिन आर्थिक
विषयों पर चर्चा करने और अर्थव्यवस्था को सुधारने सरीखी गंभीर समस्याओं पर गेंद विपक्ष के पाले में सरका दी।
इसका श्रेय लिया कि संसद का बजट सत्र शुरू होने से पहले सर्वदलीय बैठक में उन्होंने कहा था कि यह सत्र
आर्थिक विषयों को समर्पित होना चाहिए। खूब हंगामेदार विमर्श और बहस करनी चाहिए कि वैश्विक आर्थिक
परिस्थितियों से हम अपने देश को कैसे उबार सकते हैं, कैसे उन परिस्थितियों का फायदा उठा सकते हैं। प्रधानमंत्री
ने यह भी दावा किया कि भारत की अर्थव्यवस्था के बुनियादी मानदंड पूरी तरह मजबूत हैं। दरअसल प्रधानमंत्री
मानने को तैयार नहीं हैं कि देश में आर्थिक सुस्ती के हालात हैं, जो कभी भी मंदी के रूप में तबदील हो सकते हैं।
हम देश में प्रौद्योगिकी के विस्तार, डिजिटल प्रयोग की मानसिकता, ब्रॉड बैंड, स्टार्ट अप की सफलता आदि को
स्वीकार करते हैं, लेकिन बजट का विश्लेषण करते हुए प्रख्यात अर्थशास्त्रियों ने जो स्थापनाएं दी थीं, कमोबेश
प्रधानमंत्री सारांश में तो उनका जवाब देते। बजट पर संसद के भीतर जो चर्चा होगी, संशोधन पेश किए जाएंगे,
उनका जवाब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण देंगी। वह भी एक संसदीय औपचारिकता है। बहरहाल यह सुखद रहा कि
प्रधानमंत्री मोदी नागरिकता के सवाल और उससे जुड़े कानूनों पर करीब 20-25 मिनट तक बोले। देश और
खासकर मुसलमानों को संसद के मंच से आश्वस्त भी किया कि किसी भी नागरिक की नागरिकता पर कोई प्रभाव
नहीं पड़ेगा। किसी भी धर्म के व्यक्ति की नागरिकता छीनी नहीं जाएगी, लेकिन उन आश्वासनों और जवाबों में एक
अधूरापन रह गया। नतीजतन दिल्ली के अति संवेदनशील और उग्र आंदोलन, शाहीन बाग के साथ-साथ देश में

किसी भी आंदोलन या धरने-प्रदर्शन को समाप्त नहीं किया गया। एक अविश्वास अब भी लोगों के दिलों में मौजूद
है। प्रधानमंत्री को वह भी साफगोई से कहना चाहिए था। उन्होंने एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) पर एक
भी शब्द नहीं बोला। जब प्रधानमंत्री संसद में सभी सवालों के जवाब दे रहे हों, तो गृहमंत्री या कोई अन्य मंत्री के
बयान या दावे बेमानी हो जाते हैं। प्रधानमंत्री को ही एनआरसी की भ्रांतियां दूर करनी चाहिए थीं। उन्होंने अपनी
दलीलों के पक्ष में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री, प्रख्यात समाजवादी नेता
राम मनोहर लोहिया आदि के पुराने प्रसंगों और वक्तव्यों का उल्लेख किया और सवाल कांग्रेस की ओर उछाल दिया
कि वे भी सांप्रदायिक थे? क्या वे भी गलत थे, जो पाकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और ईसाई,
पारसी सरीखे अल्पसंख्यकों को देश की नागरिकता देने के पक्षधर थे? नेहरू ने तो इसके लिए कानून में बदलाव
करने तक की बात कही थी। प्रधानमंत्री ने मौजूदा अराजकता का ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ा कि वह वोट बैंक की
राजनीति के तहत ऐसा कर रही है। प्रधानमंत्री ने शाहीन बाग सरीखे प्रदर्शनों को ‘हिंसा’ करार दिया। कहने का
मतलब यही है कि तमाम दलीलों के बावजूद तनाव और अविश्वास के हालात यथावत बने हैं। इस गतिरोध को
समाप्त करने का दायित्व प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर है। लोग परेशान हो रहे हैं, आपस में भी अविश्वास
पैदा होने लगा है। जब ये तमाम प्रशासनिक गतिविधियां हैं, तो प्रधानमंत्री को एक और शब्द बोलने में क्या हिचक
है? संसद का बजट सत्र फिलहाल अवकाश के लिए 11 फरवरी को स्थगित हो जाएगा और फिर 2 मार्च से शुरू
होगा। यह एक लंबा अंतराल है। प्रधानमंत्री अब संसद के बाहर ही इन समस्याओं को संबोधित कर सकते हैं।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *