संयोग गुप्ता
दिल्ली के शाहीन बाग की प्रदर्शनकारी महिलाओं ने ‘नागरिकता संशोधन कानून’ (सीएए) और ‘राष्ट्रीय नागरिक
रजिस्टर’ (एनआरसी) कानून के खिलाफ अहिंसक संघर्ष छेड़कर सत्ताधारियों को असमंजस में डाल दिया है। इन
महिलाओं ने नई सदी में एक ऐसी नई मिसाल कायम की है जिसको महात्मा गांधी के डेढ़ सौवें जयंती वर्ष पर
अहिंसक सत्याग्रह की तरह दुनियाभर में बार-बार उद्धृत किया जा रहा है। पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली के शाहीन
बाग में चल रहे महिलाओं के इस संघर्ष की विशेषता है कि अब यह केवल शाहीन बाग तक सीमित नहीं रह गया
है। महिलाओं के ऐसे ही आंदोलन दिल्ली में जामिया मिल्लिया, आरामपार्क (खुरेंजी), सीलमपुर फ्रूट मार्केट, जामा
मस्जिद, तुर्कमान गेट के साथ-साथ बिहार में पटना के सब्जीबाग, गया के शांतिबाग और मुजफ्फरपुर, अररिया,
बेगूसराय, पकरी बरावां, किशनगंज, नवादा, मधुबनी, सीतामढ़ी, सिवान, गोपालगंज, महाराष्ट्र के धुले, पुणे,
नांदेड़ और कुंडवा, पश्चिम-बंगाल में कोलकाता के पार्क-सर्कस, आसनसोल, उत्तर प्रदेश में बरेली, इलाहाबाद,
कानपुर, इटावा, लखनऊ, राजस्थान में जयपुर और कोटा, मध्यप्रदेश में भोपाल और इंदौर, गुजरात में अहमदाबाद
और कर्नाटक में मंगलूर सहित अनेक शहरों तक फैल गए हैं। ‘सीएए’ और ‘एनआरसी’ कानून के खिलाफ देशभर
में जमकर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। इन प्रदर्शनों का केंद्र भले ही दिल्ली का शाहीन बाग है, लेकिन अब देखते-ही-
देखते कई राज्यों में शाहीन बाग बन चुके हैं। बानगी के तौर पर एक दिन शाहीन बाग में लाखों लोग जुटे और
‘सीएए’ के खिलाफ ट्विटर पर ट्रेंड करने लगे। उस दिन लाखों लोगों ने केंद्र सरकार से उपरोक्त कानूनों पर फिर
से विचार करने की अपील की, लेकिन सरकार जनमत की उपेक्षा कर अपनी जिद पर अड़ी रही। पूर्व विदेश सचिव
शिवशंकर मेनन ने ‘एनआरसी’ और ‘सीएए’ कानूनों को अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा बताते हुए कहा है कि
इन कानूनों की वजह से भारत दुनिया में कूटनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि
इन्हीं कानूनों के कारण भारत दुनिया में डेमोक्रेसी इंडेक्स में भी पिछड़ गया है। यूरोपीय संसद में सोशलिस्ट्स और
डेमोक्रेट्स ग्रुप ने हाल में ‘सीएए’ कानून को भेदभावपूर्ण और खतरनाक रूप से विभाजनकारी बताते हुए एक प्रस्ताव
पेश किया है। प्रस्ताव में कहा गया है कि इस कानून से दुनिया में सबसे बड़ी अराजकता का माहौल पैदा हो सकता
है। इस कानून के तहत समान सुरक्षा के सिद्धांत पर अमरीका ने भी सवाल खड़े किए हैं। ‘यूरोपीय संसद’ के 24
सदस्य देशों के 154 सदस्यीय सोशलिस्ट्स और डेमोक्रेट्स ग्रुप के सदस्यों द्वारा यह प्रस्ताव पेश किया गया है
जिस पर जल्दी ही चर्चा होने की उम्मीद है। शाहीन बाग सहित देश के विभिन्न इलाकों के सार्वजनिक स्थलों पर
प्रदर्शनकारी महिलाएं देशभक्ति पूर्ण नज़्मों, गजलों और कविताओं को गाकर संविधान बचाने की गुहार लगा रही हैं।
देश में ऐसा पहली बार देखने को मिल रहा है कि इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं इस तरह से अहिंसक विरोध
प्रदर्शन कर रही हैं। न केवल प्रदर्शन, बल्कि पूरे आंदोलन का संचालन महिलाएं कर रही हैं। इन महिलाओं के साथ
उनके घर के पुरुष, युवा और बच्चे भी इस आंदोलन में भागीदार बन रहे हैं। ये वही महिलाएं हैं, जो कभी
सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर अपनी राय जाहिर नहीं करती थीं। आज उन्होंने अपने अभूतपूर्व प्रदर्शनों से सरकार
की नाक में दम कर दिया है। इनके आंदोलन को नाजायज बताकर कई तरह से बदनाम करने की कोशिश की जा
रही है, उसे दबाने की कोशिश की जा रही है, इसके बावजूद प्रदर्शनकारी महिलाएं अहिंसक तरीके से अपनी बात
रख रही हैं और अनेक कष्ट झेल कर भी पीछे नहीं हटना चाहती हैं। प्रसिद्ध लेखक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने शाहीन
बाग की महिलाओं के आंदोलन को देश के लिए जरूरी बताते हुए इसे जम्हूरियत और इनसानियत को बचाने का
आंदोलन करार दिया है। आम जन-जीवन में विस्मृत हो रहे महात्मा गांधी और डा. अंबेडकर की तस्वीरों को शाहीन
बाग की आंदोलनकारी महिलाओं ने प्रदर्शन स्थल पर प्राथमिकता से प्रतिष्ठित कर उनको आज प्रासंगिक बना दिया
है। महात्मा गांधी कहते थे कि वे कभी नहीं मिटेंगे और जरूरत पड़ने पर वे कब्र से भी बाहर आ जाएंगे। आज
साबित हो गया है कि महात्मा गांधी विचार के रूप में कभी खत्म नहीं हो सकते। डा. अंबेडकर के संविधान की रक्षा
के लिए शाहीन बाग की महिलाओं को अपने संघर्ष के लिए महात्मा गांधी का अहिंसक रास्ता ज्यादा जरूरी लग रहा
है। कल तक गांधी और अंबेडकर अलग-अलग मंचों पर ही शोभायमान होते थे, पर शाहीन बाग के आंदोलन में ये
दोनों महापुरुष एक ही मंच पर साथ-साथ दिखाई पड़ रहे हैं। इन महिलाओं के अहिंसक आंदोलन को किसी एक
कौम का आंदोलन बता कर इसके महत्त्व को कम करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन यह सच्चाई है कि इस
आंदोलन को सभी वर्ग के लोगों का समर्थन मिल रहा है और आम लोग आंदोलन में शरीक हो रहे हैं।
शाहीन बाग के आंदोलन को बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, साहित्यकारों, समाजकर्मियों, छात्र-छात्राओं, वकीलों, वैज्ञानिकों
और कलाकारों सहित लोकतंत्र बचाने में लगी संस्थाओं और संगठनों का भी समर्थन मिल रहा है। महिलाओं के
प्रदर्शन स्थल पर तिरंगा लहराता है और किसी भी धार्मिक प्रतीक की बजाय राष्ट्रीय प्रतीकों को ही आवाज बुलंद
करने के लिए उपयोग में लाया जा रहा है। गणतंत्र दिवस के मौके पर शाहीन बाग में दस लाख से ज्यादा लोग जुटे
थे। यहां रोहित वेमुला (हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के शोध-छात्र जिन्होंने दलित होने की प्रताड़ना के चलते चार
साल पहले आत्महत्या की थी) और नजीब (‘जेएनयू’ के शोध-छात्र जो सालभर पहले अचानक गायब हो गए हैं) की
माताओं ने तिरंगा फहराया और घोषणा की कि नागरिकता कानून के वापस होने तक इसके खिलाफ संघर्ष जारी
रहेगा। शाहीन बाग की महिलाओं के संघर्ष को पैसे लेकर चलाने के आरोपों के बीच यह हकीकत भी देखने को मिल
रही है कि यह संघर्ष किसी कहने या उकसाने पर महिलाओं ने शुरू नहीं किया है। यह उनका स्वयंस्फूर्त आंदोलन
है। इस आंदोलन की कामयाबी यह भी है कि इसमें हर वर्ग और धर्म के लोग शामिल हो रहे हैं और
आंदोलनकर्ताओं की मदद कर रहे हैं। सिख किसान सुदूर पंजाब से बसों में आकर धरना-स्थल पर लंगर लगा रहे
हैं। यहां बहुत से ऐसे आम लोग भी दिखाई पड़ जाते हैं जो अपनी गाडि़यों से रोज खाने-पीने की वस्तुएं लाते हैं
और प्रदर्शनकारियों के बीच वितरित कर रहे हैं। शाहीन बाग के आसपास के निवासी भी, अपनी-अपनी हैसियतों के
मुताबिक मदद कर रहे हैं, कोई बिस्कुट या समोसे, तो कोई पानी के पाउच बांट रहा है। महिलाओं का यह
आंदोलन दुनिया भर के लिए अहिंसक संघर्ष के तौर-तरीके सिखाने वाली पाठशाला भी बन गया है। यहां कोई
भड़काऊ और धार्मिक नारे नहीं लगाए जाते। बेशक तकरीरें आवेश में की जा रही हैं, पर कोशिश यही होती है कि
बातें मर्यादित हों। अनेक तरह की कठिनाइयों के बावजूद महिलाओं का प्रदर्शन जारी है। यहां कविताओं का पाठ हो
रहा है, गीत गाए जा रहे हैं, कैंडल मार्च निकाले जा रहे हैं। आम-राय लोकतंत्र की जीवन-रेखा होती है, लोकतंत्र में
सभी की बात सुनने, व्यक्त करने और यहां तक कि असहमति जाहिर करने का महत्त्वपूर्ण स्थान है। महिलाओं का
यह आंदोलन लोकतंत्र को मजबूत करने वाले आंदोलन का प्रतीक बन गया है। प्रसिद्ध कवि और आलोचक अशोक
वाजपेयी का कहना है कि समाज में नए तरीके के विभाजन को पैदा करने की जो कोशिशें हो रही हैं, उनके विरुद्ध
शाहीन बाग जैसे आंदोलनों में भारत के सभी धर्मों को मानने वाले लोगों को समाहित करते संविधान को अपनी
पवित्र पुस्तक बताने और उसकी सत्ता खड़ी करने का आग्रह किया जा रहा है। धरना-स्थल पर नागार्जुन, मुक्तिबोध
और दुष्यंत कुमार जैसे कवियों की कविताओं का पाठ किया जा रहा है, ऐसे में लगता है, जैसे कविता सच में
सामुदायिक व्यक्ति बन गई है।