विश्व का शायद ही कोई देश ऐसा हो जहां एक ही धर्म तथा एक ही धार्मिक विश्वास व मान्यताओं के लोग रहते
हों। पूरे विश्व के लगभग सभी देशों में यदि कोई धर्म या विश्वास विशेष के लोग बहुसंख्या में हैं तो अन्य कई
धर्मों व मान्यताओं के लोग उसी देश में अल्पसंख्यक के रूप में भी रहते आ रहे हैं। ज़ाहिर है कि अल्प संख्या में
होने के नाते अधिकांश देश उनकी सुरक्षा तथा विकास के लिए तरह तरह के उपाए भी करते रहते हैं। दुनिया के
सभी धर्मों के धर्मशास्त्र तथा नैतिकता के तक़ाज़े भी हमें यही शिक्षा व प्रेरणा देते हैं कि अल्पसंख्यक व कमज़ोर
समाज के लोगों को पूरी सुरक्षा दी जाए तथा उनके हितों का पूरा ध्यान रखा जाए। अनेक शासकों व सत्ताधीशों
द्वारा यह दावे भी किये जाते हैं कि हमारे देश व शासन में अल्पसंख्यक पूरी तरह से सुरक्षित हैं। परन्तु बदलती
दुनिया की तस्वीर के साथ साथ साथ अब ऐसा प्रतीत होता है कि अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के बजाए बहुसंख्यकों का
पक्षधर बनना सत्ता व शासकों को अधिक रास आ रहा है। सत्ताधीशों की इस बदलती सोच की वजह 'वोट की
राजनीति' तो कही जा सकती है परन्तु यदि अल्पसंख्यकों की अनदेखी कर या उन्हें प्रताड़ित कर या उनके विरुद्ध
नफ़रत के बीज बोकर बहुसंख्य समाज को ख़ुश करने की कोशिश की जा रही है तो यह सर्वथा अनुचित व अनैतिक
है। अफ़सोस की बात तो यह भी है कि आज कई देश ऐसे भी हैं जो अपने देश के अल्पसंख्यकों की दुर्दशा देखने व
उसका समाधान निकालने के बजाए दूसरे देशों पर उंगली उठाते रहते हैं। जबकि कई देश इस तरह की गतिविधियों
को अपने देश का अंदरूनी मामला बताकर किसी दूसरे देश की इस विषय से संबंधित टिपण्णी, आलोचना व
हस्तक्षेप को ख़ारिज कर देते हैं।
कुछ ऐसी ही परिस्थितयां इन दिनों भारतीय उप महाद्वीप के कई देशों में देखी जा सकती हैं। भारतवर्ष भी जहां
इन दिनों बहुसंख्यवाद की राजनीति का शिकार है वहीँ पाकिस्तान, बांग्लादेश व श्रीलंका जैसे देश भी ऐसे ही हालत
का सामना कर रहे हैं। सत्ता संरक्षित बहुसंख्यवाद की राजनीति की एक त्रासदी यह भी है कि सत्ताधीशों को अपने
देश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले ज़ुल्म, उनके साथ होनेवाला सौतेला व्यवहार या उनकी अवहेलना नज़र नहीं
आती परन्तु वे अपने पड़ोसी देशों के ऐसे ही हालात पर घड़ियाली आंसू बहाते दिखाई देते हैं। उदाहरण के तौर पर
भारत की सत्ता बहुसंख्यकों के धार्मिक व सामाजिक हितों की रक्षा की दुहाई देती है तो वही सत्ता पड़ोसी देश
पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर होने वाले ज़ुल्म अथवा किसी भी प्रकार के भेदभाव पर चिंता व्यक्त करती है। ठीक
यही स्थिति पाकिस्तान की भी है। पाक सत्ताधीशों को भी भारतीय मुसलमानों या अन्य अल्पसंख्यकों पर होते
कथित ज़ुल्म या ग़ैर बराबरी के मामले ख़ूब नज़र आते हैं परन्तु उसे अपने ही देश में अल्पसंख्यकों के प्रति फैली
नफ़रत, उनके साथ सामाजिक स्तर पर होने वाला ग़ैरबराबरी का व्यवहार नज़र नहीं आता? आख़िर क्यों? अक्सर
ऐसी ख़बरें पाकिस्तान से सुनाई देती हैं कि अल्पसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति का जबरन धर्मांतरण कराया गया
तो कभी किसी युवती का अपहरण कर उसका धर्म परिवर्तन कर ब्याह रचा लिया गया। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों
के धर्मस्थलों पर हमले करने की ख़बरें भी अक्सर आती रहती हैं। अक्सर देखा गया है कि ईश निंदा क़ानून के
समर्थन में या किसी एक व्यक्ति पर ईश निंदा का आरोप लगाकर उसके विरुद्ध लाखों लोगों का हुजूम संगठित
होकर सड़कों पर उतरा। आसिया बीबी जैसे कई इस तरह के मामले सामने आते रहे हैं। हद तो यह है कि ईश निंदा
क़ानून को उदार बनाने या इनपर पुनर्विचार करने की बात करने वाले उदारवादी सोच के पीपुल्स पार्टी के रहनुमा व
पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर की हत्या तक उन्हीं के एक कट्टरपंथी अंगरक्षक द्वारा कर दी गयी।
पाकिस्तान में अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक का मापदंड भी क़ाबिल-ए-ज़िक्र है। भारत में बैठ कर भले ही ऐसा प्रतीत
होता हो कि पाकिस्तान एक मुस्लिम राष्ट्र है और मुसलमान वहां बहुसंख्या में हैं। शेष ग़ैर मुस्लिमों की गिनती ही
अल्पसंख्यकों में की जाती है। परन्तु ऐसा हरगिज़ नहीं है। यदि आप गत चार दशकों के पाकिस्तान के हालात पर
नज़र डालें तो आपको सबसे अधिक प्रताड़ित होते हुए मुसलमान समुदाय लोग ही दिखाई देंगे। चाहे वे बरेलवी
मुसलमान हों, शिया हों या अहमदिया। मुसलमानों के ही कुछ स्वयंभू ठेकेदार तो पाकिस्तान में यहां तक दावा
करते हैं कि अहमदिया व शिया समुदाय के लोग तो मुसलमान ही नहीं हैं। और यही समुदाय पाकिस्तान का सबसे
पीड़ित व प्रभावित समाज भी है। पाकिस्तान में इन समुदायों की सैकड़ों मस्जिदों, दरगाहों व इमामबाड़ों तथा
जुलूसों व मीलादों आदि पर अनेक बड़े हमले यहां तक कि आत्मघाती हमले हो चुके हैं। अब ज़रा ग़ौर कीजिये कि
भारत की वर्तमान सत्ता की नज़रों में वे पाकिस्तान के अल्पसंख्यक नहीं इसलिए देश का नया नगरिकता संशोधन
क़ानून उनके लिए कोई जगह नहीं रखता। उधर पाकिस्तान के शासक जो अपने देश के अल्पसंख्यकों सहित
बरेलवी, शिया व अहमदिया मुसलमानों को सुरक्षा नहीं दे पा रहा वह भारतीय मुसलमानों की चिंता का ढोंग करता
दिखई देता है। अपने देश में ननकाना साहब जैसी पवित्र जगह पर होने वाले पथराव व तोड़ फोड़ जैसी शर्मनाक
घटना को रोक न पाने वाले पाक सरबराह जब भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की चिंता करते हैं तो यह महज़
एक ढोंग दिखाई देता है।
यदि दुनिया के सत्ताधीशों में मानवता व नैतिकता नाम की रत्ती भर चीज़ भी बची है तो उन्हें अपने वोटबैंक की
ख़ातिर बहुसंख्यवाद की राजनीति से बचना चाहिए और वास्तविक धर्म का अनुसरण करते हुए कमज़ोर व
अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा करनी चाहिए। यदि किसी भी देश का कोई भी अल्पसंख्यक समाज अपने ही मुल्क
में भय या तनाव की स्थिति में जीवन बसर कर रहा है तो यह उस देश की सत्ता व सत्ताधीशों पर कलंक के समान
है। ऐसे शासकों को न्यूज़ीलैंड में मार्च 2019 में घटी उस घटना को ज़रूर यद् रखना चाहिए जिसमें दो मस्जिद में
हुए आतंकी हमले में 50 नमाज़ियों की मौत हो गई थी। इस घटना के बाद वहां की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने
इसे असाधारण आतंकी हिंसा बताकर न्यूज़ीलैंड के मुसलमानों के आंसू पोंछने, उनका दिल जीतने व उनके दिलों में
सुरक्षा का माहौल पैदा करने के लिए यहां तक कि उनके सदमे व ग़म में शरीक होने के लिए वह सभी काम किये
जो एक सच्चे, अच्छे व नैतिकता का धर्म निभाने वाले शासक को करना चाहिए। इस घटना में पूरे विश्व में
आतंकवादी घटना से अधिक चर्चा प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न के कुशल शासन व उनके व्यवहार की हुई। इस घटना के
बाद उन्हें शोकाकुल लोगों के बीच ज़मीन पर बैठकर रोते हुए देखा गया। आज भारत के ज़िम्मेदार नेता कहते हैं
कि भारत एक देश है कोई 'धर्मशाला' नहीं जो हर एक के लिए अपने दरवाज़े खुले रखे। परन्तु इन्हें शायद यह नहीं
पता कि 'धर्मशाला' बनाने वालों का ह्रदय संकीर्ण नहीं विशाल हुआ करता था अन्यथा इसका नाम ही 'धर्म' शाला
क्यों पड़ता। धर्म पर चलने वाले लोग ही 'धर्मशाला' की कल्पना करते हैं जबकि सत्ता के भूखे सियासतदां तो लाशों
पर सियासत करने को ही अपना धर्म समझते हैं। शायद तभी ऐसे नेता जनता के बीच जाकर शमशान और
क़ब्रिस्तान की बातें करते हैं। हर देश के सत्ताधीशों को यह एहसास होना चाहिए कि अल्पसंख्यकों, कमज़ोरों व
पीड़ितों की सुरक्षा हर देश की सत्ता का नैतिक कर्तव्य है। जो इसका पालन नहीं करता उसे धर्म, मानवता या
नैतिकता की दुहाई देने का कोई हक़ नहीं।