दक्षिण और वामपंथ में उलझा राष्ट्रवाद?

asiakhabar.com | January 2, 2020 | 5:49 pm IST
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लोकतंत्र में विचारों का जिंदा रहना बेहद आवश्यक है। विचारों में सहमति और असहमति भी जरूरी है, लेकिन
अभिव्यक्ति जब हिंसात्मक हो जाती है तो वह अतिवाद की श्रेणी में आ जाती है। विचारों की स्वतंत्रता हर नागरिक
का संवैधानिक अधिकार है। सवाल तब उठता है विचारों की आजादी मिली है तो क्या हाथ में पत्थर उठा लिया
जाए। बेगुनाहों का खून बहाया जाए। सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाया जाए। सरकारी संपत्ति क्षतिपूर्ति की नोटिस

तामिल कराई जाए। हिंसक प्रदर्शन में लोगों को जेलों में ठूंस दिया जाए। यह कैसी आजादी है? हम किस तरह की
आजादी चाहते हैं। हमारा संविधान क्या ऐसी अभिव्यक्ति की आजादी देता है? दक्षिण और वामपंथ की लड़ाई में
देश जल रहा है। सेक्युलरवाद के नाम पर नई परिभाषा गढ़ी जा रही है। विचारधाराओं के हिंसक धड़े तैयार हो गए
हैं। प्रिंट, टीवी और सोशल मीडिया विचारों की समालोचना के बजाय गोलबंदी में खड़ा दिखता है। समालोचनाओं का
युग ही खत्म होता दिख रहा है। सत्ता और विपक्ष आलोचनाओं की खेमेंबंदी में विभाजित है।
राष्ट्रवाद की नई परिभाषाएं निरंतर गढ़ी जा रही हैं। जेएनयू, जामिया, डीडीयू और अलीगढ़, बीएचयू, जावधपुर
जैसे शिक्षा संस्थानों के हालात क्या हैं। ऐसे संस्थानों में किस तरह की विचारधाराएं गढ़ी जा रही हैं। यह विचारणीय
बिंदु है। महामना मदनमोहन मालवीय ने जिस काशी हिंदू विश्वविद्यालय को अपने खून-पसीने से सींचा। उसी
बगिया में संस्कृत विभाग में एक प्रोफेसर की नियुक्ति को लेकर किस तरह सांप्रदायिकता और विभाजन का खेल
खेला गया। शिक्षा के मंदिर को भी सांप्रदायिकता में बांटने की साजिश रची गई, यह बेहद शर्मनाक है।विचारधाराओं
में मतभेद होना आवश्यक है। लेकिन जब बात मनभेद तक पहुंच जाती है तो हिंसा का रूप धारण कर लेती है।
केरल के कन्नूर विश्वविद्यालय में जिस तरह दक्षिण विचारधारा के हिमायती राज्यपाल आरिफ मोहम्मद के साथ
बदसलूकी की गई वह इतिहास को कलंलित करती है। यह बात तब और अहम हो जाती है जब उसी मंच पर जाने-
माने इतिहासकार इरफान हबीब जैसी शख्सियत मौजूद हो। राज्यपाल की सुरक्षा में लगे गार्ड का बिल्ला नोचना
और राज्यपाल के साथ हुई बदसलूकी किस लोकतंत्र का हिस्सा कही जा सकती है। जबकि राज्यपाल उस राज्य के
उच्च शिक्षापीठ का कुलाधिपति होता है। विचाराधाराओं के टकराव का स्तर गिरकर अबुल कलाम आजाद और
गोडसे में बंट गया है। जिन्होंने हमें भारत जैसे देश का अनुपम गुलदस्ता सौंपा उन्हीं गांधी, नेहरू और सरदार
पटेल को दक्षिण और वामपंथ में बांट कर कतिपय लोग नई परिभाषा गढ़ने को बेताब हैं।
दक्षिणपंथ और वामपंथ के झगढ़े की असली वजह देश में हुए राजनीतिक परविर्तन हैं। देश में दक्षिणपंथ विचारधारा
की हिमायती भाजपा का प्रभाव तेजी से बढ़ा है। इसकी वजह से दक्षिणपंथ और वामपंथ की वैचारिक पृष्ठभूमि में
सियासी हिंसा बढ़ रही है। पश्चिम बंगाल और केरल में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याएं इसका उदाहरण हैं।
बंगाल के लोकसभा और पंचायत चुनाव में हुई हिंसा किसी से छुपी नहीं है। जबकि जमीनी सच्चाई है कि
सेक्युलरवाद पर ही दक्षिण और वामपंथ का वजूद है। पुरस्कार वापसी गैंग, टुकड़े-टुकड़े और माब लिचिंग जैसी
विचारधाएं इसी दक्षिण और वामपंथ की उपज हैं। उच्च शैक्षणिक संस्थान हिंसा और प्रदर्शन के अड्डे बन गए हैं।
दक्षिण और वामपंथ की लड़ाई का नतीजा है कि नागरिकता बिल पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
संयुक्त राष्ट तक पहुंच गई। उन्होंने संयुक्त राष्ट संघ की निगरानी में संशोधित नागरिकता अधिनियम पर मत
विभाजन तक की मांग कर डाली।
वोट बैंक की राजनीति में हम कितने गिर जाएंगे, इसका पैमाना हमारे पास नहीं है। सीएए, एनआरसी और
एनपीआर पर लगी आग शांत होने का नाम नहीं ले रही है। झूठ किस तरह बेचा जा रहा है। कौन झूठ बोल रहा है
और कौन सच। अभी तक यह तय नहीं हो पाया है। वोट बैंक की भट्ठी पर जनतंत्र को उबाल कर सड़क पर खड़ा
कर दिया गया है। सरकार कह चुकी है कि एनआरसी का कोई खाका तैयार नहीं है। एनआरसी असम को छोड़कर
देश में नहीं लागू होगा। किसी का देश निकाला नहीं होगा। नागरिकता अधिनियम से देश के किसी भी नागरिक पर
कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। बावजूद इसके विपक्ष भ्रम की राजनीति कर रहा है। संसद में नागरिकता बिल पर पूरी
प्रक्रिया का अनुपालन हुआ है।

देश संविधान और विधान से चलता है। हमारे संविधान का निर्माण धर्म, पंथ, जाति, लिंग, भाषा, रंग, विचार से
नहीं हुआ है। संविधान के मूल में सेक्युलरवाद की अवधारणा हैं। उसमें दक्षिण और वामपंथ का कोई स्थान नहीं है।
इसलिए यह वक्त दक्षिण और वामपंथ के झगड़े से बाहर निकलने का है।


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