संयोग गुप्ता
लौहपुरुष सरदार पटेल सिर्फ कांग्रेस के थे या समूचे देश के हैं? बीती 31 अक्तूबर को देश ने उनकी
144वीं जयंती मनाई। यह दिन ‘राष्ट्रीय एकता दिवस’ के तौर पर मनाया जाता है। एक ओर सरदार
पटेल की जयंती थी, तो दूसरी ओर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि थी। 1984 में इसी दिन
तत्कालीन प्रधानमंत्री के सिख सुरक्षा कर्मियों ने ही उनकी हत्या कर दी थी। प्रतिक्रिया में देश के कई
हिस्सों में भयावह सिख-विरोधी दंगे भड़के थे। अकेली दिल्ली और आसपास के ही इलाकों में करीब
12,500 सिखों का कत्लेआम किया गया था। बहरहाल आज यह हमारा विषय नहीं है, लेकिन इस तारीख
से क्या-क्या घटनाएं जुड़ी हैं, यह जानना जरूरी है, क्योंकि चिंता राष्ट्रीय एकता की है। बुनियादी सवाल
यह है कि आखिर सरदार किसके थे और उनकी विरासत क्या थी? विडंबना यह है कि सरदार पटेल के
नेतृत्व में जिन 565 रियासतों और रजवाड़ों का भारत के साथ विलय कर, देश की स्वतंत्रता को, मजबूती
और व्यापकता दी गई थी, उस पर विश्लेषण करने के बजाय ये बयान दिए जा रहे हैं कि आज सरदार
होते तो आरएसएस पर पाबंदी थोप देते! सरदार का सपना ‘अखंड भारत’ का था और कश्मीर के बिना
वह एकीकरण संभव नहीं था। बेशक जम्मू-कश्मीर का 31 अक्तूबर को ही आधिकारिक तौर पर पुनर्गठन
करना भारत के एकीकरण की एक प्रक्रिया ही है। अनुच्छेद 370 को समाप्त कर प्रधानमंत्री मोदी ने
कमोबेश सरदार के उस सपने को साकार करने की कोशिश की है। गौरतलब है कि यदि आज सरदार
पटेल की जयंती को राष्ट्रीय समारोह के तौर पर मनाया जा रहा है, राष्ट्रीय एकता का अवार्ड दिया जाता
है, ‘स्टेच्यु ऑफ यूनिटी’ दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा है, सरदार की ऐतिहासिक विरासत को खंगाल
कर उसका विश्लेषण किया जा रहा है, तो उसका एकमात्र श्रेय भी प्रधानमंत्री मोदी को जाता है। साल भर
में करीब 26 लाख सैलानी ‘स्टेच्यु ऑफ यूनिटी’ को देखने गए हैं। सरदार पटेल को भारत की एकता
और अखंडता के प्रतीकस्वरूप मोदी सरकार ने ही स्थापित किया। इसके पीछे राजनीतिक और गुजराती
मकसद भी रहा होगा, लेकिन हमने अभी तक सरदार पटेल को कुछ पाठ्य पुस्तकों, सड़कों, चौराहों तक
ही सीमित देखा था। ‘अखंड भारत’ के परिप्रेक्ष्य में कभी भी उनका सम्यक मूल्यांकन नहीं किया गया।
कांग्रेस कभी भी नेहरू-गांधी परिवार से बाहर नहीं निकल पाई। कुछ ऐतिहासिक बयान या पत्र भी
सार्वजनिक नहीं हो पाए, जबकि यह ऐतिहासिक और प्रामाणिक सच है कि कांग्रेस के तत्कालीन 15
प्रदेश अध्यक्षों में से 12 जवाहर लाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे। उसके बावजूद
सरदार ने यह पद नेहरू को दिया और खुद उनके ‘उप’ बने। आज के गांधी परिवार को इस इतिहास की
जानकारी क्यों होगी? बेशक सरदार पटेल कांग्रेस के निष्ठावान नेता थे, क्योंकि उस दौर में कांग्रेस पार्टी
का ही वर्चस्व था और अन्य पार्टियां बौनी थीं, लेकिन आज कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का यह
कथन कि ‘शत्रुओं को भी आज सरदार को नमन करना पड़ रहा है’, बेहद शर्मनाक और बचकाना बयान
है। क्या इसी देश का प्रधानमंत्री अपने पूर्ववर्ती नेताओं का शत्रु है, क्योंकि वह भाजपा-संघ का नेता है
और दिवंगत नेता कांग्रेस के थे? दुर्भाग्य तो यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और पूर्व अध्यक्ष
राहुल गांधी तो अपने ‘पूर्वज नेता’ सरदार पटेल को श्रद्धांजलि देने का शिष्टाचार ही भूल गए। जबकि
प्रधानमंत्री मोदी ने दिवंगत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को अपने ट्विटर पर ही श्रद्धांजलि देकर याद किया।
यह है सरदार के प्रति कांग्रेस के सम्मान का सच…! सरदार स्वतंत्र भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री एवं
गृहमंत्री थे, लिहाजा वह राष्ट्रीय नेता थे और इस नाते उनका जुड़ाव भी समूचे देश के साथ था। सिर्फ
कांग्रेसी पहचान तो यहीं से खंडित हो जाती है कि उन्हें मृत्यु के 41 साल बाद ‘भारत रत्न’ का सर्वोच्च
सम्मान देने के काबिल समझा गया। सरदार का कल तक यह महत्त्व नहीं आंका गया, जो आज
प्रधानमंत्री मोदी विभिन्न स्तरों पर कर रहे हैं। सरदार और आरएसएस का संबंध क्या था, उसके बारे में
सोच क्या थी, क्या उस पर पाबंदी चस्पा कर देनी चाहिए, इन सवालों पर स्वतंत्र रूप से एक और
संपादकीय में विश्लेषण करेंगे। फिलहाल यही सोच अनिवार्य है कि सरदार हमारे थे, समूचे देश के थे,
नेहरू-गांधी के बंधक नहीं थे।