मनोज स्वर्णकार
वाराणसी। धर्म नगरी काशी में गुरुवार की शाम तुलसीघाट पर एक बार फिर लाखों
लोग ‘नाग नथैया’ लीला के साक्षी बने। लक्खा मेले में शुमार लीला के दौरान तुलसीघाट पर कालिया
नाग के फन पर बांसुरी बजाते कान्हा को देख श्रद्धालु निहाल हो गये। गंगा और भदैनी का पूरा इलाका
वृंदावन बिहारी लाल और हर-हर महादेव के गगनभेदी उदघोष से गूंज उठा। इस अद्भुत पल को देखने के
लिए लोग घंटों पहले से घाट के छतों, गंगा में नावों-बजड़ों पर आसन जमा चुके थे।
अखाड़ा गोस्वामी तुलसीदास और श्री संकटमोचन मंदिर के महन्त प्रो. विश्वम्भर नाथ मिश्र की देखरेख
में तुलसीघाट पर लगभग साढ़े चार सौ साल पुरानी परम्परा में ‘नाग नथैया’ लीला अपरान्ह तीन बजे
शुरू हुई। कान्हा और उनके बाल सखा गंगा नदी प्रतीक रूप से यमुना के किनारे कंचुक गेंद खेलते हैं।
खेलते-खेलते गेंद यमुना में चली जाती हैं। यमुना में कालियानाग के रहने के कारण कोई नदी के किनारे
भी नहीं जाना चाहता। बाल सखाओं के दबाव पर कान्हा शाम चार बजकर चालीस मिनट पर कदम्ब की
डाल के उपर चढ़कर यमुना में कूद जाते हैं। काफी देर तक कान्हा जब नदी से नहीं निकलते तो बाल
सखा मायूस और अकुलाने लगते हैं। कुछ समय बाद कान्हा कालियानाग का मान मर्दन कर उसके फन
पर नृत्य मुद्रा में वेणुवादन कर प्रकट होते हैं। यह देख गंगा तट पर मौजूद लाखों लीला प्रेमियो ने
वृंदावन बिहारी लाल की जय, नटवर नागर भगवान श्रीकृष्ण की जय, हर-हर महादेव के उद्घोष से
फिजाओं को गुंजायमान कर दिया। कान्हा ने नदी की धारा में पूरा एक चक्कर लगाकर वहां मौजूद
जनसैलाब को दर्शन दिया । इसके बाद बाल बटुकाें ने कान्हा के स्वरूप की महाआरती की। लीला के
आयोजक संकट मोचन मंदिर के महंत प्रो. विश्वंभर नाथ मिश्र और काशी नरेश राज परिवार के डा.
अनंत नारायण सिंह ने कान्हा का माल्यार्पण किया। इन अलौकिक पलों को अपने कैमरों और मोबाइल में
कैद करने की होड़ भी लोगों में मची रही।
पूर्व काशी नरेश के वंशज डा. अनंत नारायण सिंह पूर्वजों की परम्परा निभाने के लिए रामनगर दुर्ग से
स्टीमर के काफिले में भदैनी घाट के सामने गंगा तट पर पहुंचे। कुंवर अनंत नारयण सिंह ने स्टीमर में
सवार होकर ही लीला की परम्परानुसार प्रदक्षिणा की और लीला को देखा। डा. अनंत नारायण सिंह के
आने के बाद घाट पर बने अस्थाई कदम्ब की डाल से भगवान श्रीकृष्ण के स्वरूप यमुना (गंगा) में कूदते
हैं। पानी में पहले से ही प्रशिक्षित गोताखोर भगवान के स्वरूप को गोद में लेकर गंगा में बने
कालियानाग के फन पर विराजमान कराते हैं। कालियानाग के फन पर वेणुवादन करते कान्हा के स्वरूप
में स्वयं भगवान आ जाते हैं ऐसा जनमानस में विश्वास हैं। पूरी लीला के दौरान भगवान भोले की नगरी
मानो गोकुल बन जाती है। लीला के समापन पर डा.अनंत नारायण सिंह ने लीला कमेटी के व्यवस्थापक
को परम्परानुसार सोने की गिन्नी भी दी।
गोस्वामी तुलसीदास ने की थी इस मेले की शुरुआत
काशी के ऐतिहासिक व लक्खा मेले में शुमार तुलसीघाट के नागनथैया मेले की शुरुआत गोस्वामी
तुलसीदास ने की थी। भदैनी में लगभग 492 साल पहले कार्तिक माह में शुरू की गई इस 22 दिनों की
लीला की परंपरा आज भी निभाई जाती है। ऐसी मान्यता है कि मथुरा में जब यमुना का पानी कालिया
नाग की वजह से दूषित हो गया था, तब श्री कृष्ण भगवान अपने बाल सखाओं के साथ गेंद खेलते-
खेलते उसमें कूद गए थे और कालिया नाग का मर्दन के साथ यमुना के जल को शुद्धकर नगरवासियों
के प्राणों की रक्षा की थी। कान्हा प्रदूषणरूपी कालिया नाग को नथ कर जन-जन में गंगा को निर्मल और
शुद्ध करने का सन्देश भी देते हैं। काशी में मान्यता है कि स्वयं भोलेनाथ भी इस लीला में किसी न
किसी रूप में मौजूद रहते हैं। उनके प्रतिनिधि के तौर पर मेले में काशीराज परिवार स्वयं उपस्थित होता
है।