विनय गुप्ता
अन्न खाये मन भर छोड़ेना कन भर। अब मंदातों के कारण उलट अन्न खाये कन भर छोड़ो मन भर हो
गया। विभीषिका, कोई खां-खां के मरता है तो भूख रहकर यह दंतकथा प्रचलित होने के साथ फलीभूत भी
है। ये दोनों ही हालात में भूख को लाइलाज बीमारी बनाने में मददगार है। लिहाजा, भूख और कुपोषण
एक सिक्के के दो पहलु हैं। जहां तक कुपोषण की बात करे तो कुपोषण एक बुरा पोषण होता हैं। इसका
संबंध आवश्यकता से अधिक हो या कम किवां अनुचित प्रकार का भोजन, जिसका शरीर पर कुप्रभाव
पडता हैं। वहीं बच्चों में कुपोषण के बहुत सारे लक्षण होते है। जिनमें से अधिकांश अज्ञानता, गरीबी,
भूखमरी और कमजोर पोषण से संबंधित हैं।
दुर्भाग्य जनक, गिरफ्त आऐ बच्चे अपनी पढाई निरंतर जारी नहीं रख पाते और गरीबी के दोषपूर्ण चक्र
में फंस जाते हैं। कुपोषण का प्रभाव प्रौढावस्था तक अपनी जडें जमाए रखता हैं। प्राय: देखा गया है कि
भारत में कुपोषण लडकों की अपेक्षा लडकियों में अधिक पाया जाता हैं। और अनिवार्यत: इसका कारण है
घर पर लडकियों के साथ किया जाने वाला भेदभाव या पक्षपात। निर्धन परिवारों में और कुछ अन्य
जातियों में लडकियों का विवाह छोटी आयु में ही कर दिया जाता हैं। जिससे 14 या 15 वर्ष की आयु में
ही बच्चा पैदा हो जाता हैं। ऐसा बच्चा प्राय: सामान्य से काफी कम भार का होता हैं। जिससे या तो वह
मर जाता है अथवा उसका विकास अवरूद्ध हो जाता हैं। इससे भी अधिक खतरा इस बात का होता हैं
कि शीघ्र गर्भाधान के कारण लडकी का जीवन संकट में आ जाता हैं।
सामान्य रूप से भारत में बच्चों की पोषण संबंधी स्थिति एक चिंता का विषय हैं। यूनेस्को की रिर्पोट में
भारत में कुपोषण सब-सहारा अफ्रीका की तुलना में अधिक पाया था। मुताबिक विश्व के एक तिहाई
कुपोषित बच्चे भारत में ही पाए गए। कुपोषण बच्चे के विकास तथा सीखने की क्षमता को अवरूद्ध कर
देता हैं। इससे बच्चों की मृत्यु भी हो सकती हैं। अमुमन जिन बच्चों की बचपन में मृत्यु हो जाती है
उनमें 50 फीसद बच्चे कुपोषण के कारण मरते हैं। भारत में तीन वर्ष से कम आयु के सभी बच्चों में से
46 प्रतिशत अपनी आयु की दृष्टि से बहुत छोटे लगते हैंए लगभग 47 प्रतिशत बच्चे कम भार के होते
हैं और लगभग 16 प्रतिशत की मृत्यु हो जाती हैं। इनमें बहुत सारे बच्चे गंभीर रूप से कुपोषित होते हैं।
कुपोषण की व्यापकता राज्यों में अलग-अलग हैं।
दरअसल, हमारे देश में पोषण एक मात्र पेट भरने का तरीका है चाहे वह किसी भी तरह से क्यों ना हो
भूख मिटना चाहिए। उसके लिए कुछ भी खाना क्यों ना पडे पोषक तत्वों की फ्रिक किसे हैं। हो भी क्यों
क्योंकि भूख की तृष्णा शांत करने के लिए इंसान कुछ भी करने को आमदा हो जाता हैं। आखिर! भूख
दुनिया की सबसे बडी लाइलाज बिमारी जो बनते जा रही हैं। इसी जद्दोजहाद में भिक्षावृत्ति, वेष्यावृत्ति,
बाल मजदूरी और चोरी करना आम बात हो गई हैं। इसमें बची कुची कसर भूखमरी, अशिक्षा, बेरोजगारी,
रूढिवादिता, व्यसन, दिखास और असम्यक प्राकृतिक आपदाऐ पूरी कर देती हैं।
बदतर, सवाल यह उत्पन्न होता हैं कि आम इंसान दो वक्त की रोटी कहां से जुगाड करें। किविदंती
सरकारों, हुक्मरानों या भगवान भरोसे रहे किवां खाली पेट रहकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर दे यह
कोई समस्या का सर्वमान्य निदान नहीं हैं। हमें समाधान में समस्या नहीं, समस्या में समाधान खोजना
होगा। वह समाधान मिलेगा कृषि और स्वरोजगार के संवहनीय आजीविका के साधनों में। जरूरत हैं तो
खेती में सम्यक् आमूलचूल परिवर्तन तथा निचले स्तर तक रोजगार के संसाधन विकसित करने की। वह
आएगा, जल-जंगल-जमीन-पशुधन के संरक्षण और संर्वधन से। अभिष्ठ खेती और पंरपरागत व्यवसायों में
कौशल विकास का अभिवर्द्धन ऐसा साधन हैं जो सभी को भूख से बचा सकती हैं। जरूरत है तो भूख
मिटाने के वास्ते भोजन के प्रकार नहीं आहार पर ध्यान देते हुए हाथों में काम दिलाने की पहल से भूख
की लाइलाज बीमारी का उपचार होगी।