माल-ए-मुफ़्त -दिल-ए-बे रहम

asiakhabar.com | October 9, 2019 | 5:13 pm IST
View Details

अर्पित गुप्ता

हमारा भारतीय समाज तरह तरह के दानी, समाजसेवी, परमार्थी व परोपकारी सज्जनों से भरा पड़ा है।
मंदिरों में स्वर्ण का चढ़ावा चढ़ाने से लेकर ग़रीब कन्याओं के विवाह तक, बड़े से बड़े लंगर भंडारे
संचालित करने से लेकर मुफ़्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने तक तथा बड़े से बड़े आश्रम, अस्पताल व
धर्मशालाएं बनाने जैसे अनेक कार्यों में अनेकानेक परोपकारी सज्जनों को बढ़चढ़कर हिस्सा लेते हुए देखा
जाता है। ऐसे परोपकारी लोगों की इस तरह की जनहितकारी कारगुज़ारियों से निश्चित रूप से देश का
एक बड़ा, ग़रीब व वंचित वर्ग फ़ायदा उठाता है। परन्तु इसी तस्वीर का दूसरा रुख़ इतना भयावह है
जिसकी हम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे इसी समाज में लोभी मुफ़्तख़ोरों, स्वार्थी व उद्दण्ड
क़िस्म के लोगों का एक बड़ा भी वर्ग है जो परोपकार, सेवा, दया, करुणा व किसी से हमदर्दी जताने जैसी
बातों को तो शायद जानता ही नहीं। इस प्रवृति के लोग कभी कभी दिन के उजाले में और सरे राह बिना
किसी डर अथवा चिंता के कई ऐसी ‘कारगुज़ारियां’ में शामिल दिखाई देते हैं जिसकी उम्मीद भी नहीं की
जा सकती। इस तरह की गतिविधियों में केवल अनपढ़ या ग़रीब वर्ग के लोग ही नहीं बल्कि कभी कभी
समझदार, शिक्षित व स्वयं को सामाजिक व राजनैतिक दख़ल रखने वाला, बताने वाले लोग भी शामिल
होते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व पंजाब में एक बड़ा ट्रेन हादसा पेश आया था जिसमें कई यात्रियों की जान चली गयी। अनेक
घायल हुए और कई यात्री जीवन मृत्यु से जूझते हुए ट्रेन के डिब्बों के बीच दबे हुए पड़े थे। केवल बोगी
की लोहे की चादरों को काट कर ही उन्हें निकला जा सकता था। इस हादसे में जहां अनेक सरकारी व
ग़ैर सरकारी लोग बचाव कार्य में लगे थे वहीँ राक्षस प्रवृति का कोई एक मुफ़्तख़ोर शख़्स ऐसा भी था
जिसकी नज़र एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी जो ट्रेन की बोगी में बुरी तरह दबा था। उसके हाथ दिखाई दे रहे
थे। उस यात्री ने अपनी ऊँगली में सोने की अंगूठी पहन रखी थी। उस मुफ़्तख़ोर राक्षस की नज़र उस
यात्री की अंगूठी पर पड़ी और उसने अंगूठी न उतरने पर उसकी उंगली काटने का प्रयास किया। तभी
यात्री चीख़ उठा कि अभी मैं ज़िंदा हूँ, मेरी उंगली मत काटो। ऐसा ही एक हादसा मेरे एक परिचित के
साथ हुआ। वे अपने पांच मित्रों के साथ ऋषिकेश जा रहे थे कि अचानक उनकी सूमो गाड़ी एक ट्रक से
टकरा गई। आमने सामने की हुई इस टक्कर में ड्राइवर सहित 2 व्यक्ति मौक़े पर ही दम तोड़ गए।
जबकि शेष तीनों गंभीर रूप से घायल हो गए। दुर्घटना के फ़ौरन बाद मौक़े पर कुछ लोग इकठ्ठा हुए
उनमें उत्तरांचल के दो पुलिस कर्मी भी थे। उनकी प्राथमिकता घायलों को उठाना या उन्हें हॉस्पिटल
पहुँचाना नहीं बल्कि सूमो का बिखरा सामान उठाकर अपने क़ाबू में करना, मृतकों की जेब की तलाशी
लेकर उनके पर्स अपनी जेब में डालना और एक मृतक की गिरी हुई टोपी अपने सर पर रखना शामिल
था। हरमख़ोरी और संवेदनहीनता की इससे बड़ी मिसाल और क्या हो सकती है।
यह तो थी एक दो या चंद मुफ़्तख़ोर लोगों की कारगुज़ारियां। परन्तु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा
कि कभी कभी तो पूरी की पूरी भीड़ ही ऐसी जगह लूटमार पर उतारू हो जाती है जहां वास्तव में लूट
खसोट की नहीं बल्कि सहायता पहुँचाने की ज़रुरत होती है। सड़क पर आवागमन करते हुए ऐसे कई

हादसे देखने को मिले। एक पोल्ट्री फ़ार्म की ट्रक पर मुर्ग़ियां, मुर्ग़े लोड थे। अचानक वह ट्रक दुर्घटनाग्रस्त
होकर पलट गया। बस, फिर क्या था, देखते ही देखते मानव प्रेमियों की तो नहीं मुर्ग़ा प्रेमियों की भीड़
उस ट्रक की ओर टूट पड़ी। ड्राइवर व क्लीनर किस हाल में हैं इसकी फ़िक्र करने वाला तो उस भीड़ में
एक भी व्यक्ति न था जबकि सभी मुफ़्तख़ोरों की पूरी कोशिश यही थी कि किस तरह से ज़्यादा से
ज़्यादा मुर्ग़े, मुर्ग़ियां अपने क़ाबू में लाई जाएं। जब कभी समान ‘मुफ़्तख़ोर विचारवानों’ की भीड़ एक साथ
एक ही मिशन पर दिखाई देती है तो आश्चर्य होता है। ऐसे लोग यह भी नहीं सोच पाते कि लूट खसोट
का यह माल जब वे अपने घर लेकर जाएंगे तो परिवार के बीच अपनी किस ‘उपलब्धि’ का बखान करेंगे?
और बच्चों व परिवार पर ऐसी लूटी गयी चीज़ खाने का क्या प्रभाव पड़ेगा? ठीक ऐसी ही दुर्घटना एक
ऐसे ट्रक के साथ घटी जिसमें शराब की पेटियां लदी थीं। ट्रक पलटते ही मानों शराब प्रेमियों को भगवान
की ओर से कोई बड़ा तोहफ़ा मिल गया हो। इस घटना में भी किसी ने यह जानना ही नहीं चाहा की
ड्राइवर की क्या हालत है। सबको सिर्फ़ मुफ़्त की शराब की बोतल और हो सके तो पूरी पेटी ले भागने की
ही चिंता सता रही थी।
अब आइये एक ऐसी ही मुफ़्तख़ोर राजनैतिक भीड़ का भी ज़िक्र करते चलें। राजनैतिक कार्यकर्ताओं या
उनके द्वारा इकट्ठी की गयी भीड़ द्वारा खाने पीने की सामग्री के लिए धक्का मुक्की करना या उसे
लूटना तो मामूली बातें हैं। परन्तु कुछ समय पूर्व कांग्रेस नेता राहुल गांधी जब पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे
पर थे उस समय उन्होंने ग्रामवासियों के साथ ‘खाट पर विमर्श’ करने की योजना बनाई। इसमें सभी
ग्रामवासी व आगंतुकों को खाट पर बिठा कर संवाद किया जा रहा था। ज़ाहिर है इस तरह के कार्यक्रमों
के लिए पर्याप्त संख्या में खाट (चारपाई) का होना भी ज़रूरी था। इन कार्यक्रमों के आयोजक जहां तहां से
मांग कर, ख़रीद कर, किराए पर लेकर जैसे भी हो, खाटों का प्रबंध करने में लगे थे। यहां कई जगह यह
देखा गया कि जैसे ही राहुल गाँधी का खाट विमर्श समाप्त हुआ और वे ग्राऊंड से बिदा होने लगे उसी के
साथ ही ये राजनैतिक व सामाजिक अतिथि कार्यकर्त्ता जो विमर्श में शरीक होने ख़ाली हाथ आए थे वे
अपने साथ बड़ी बड़ी चारपाइयां अपने सिरों पर उठाकर जाते हुए दिखाई दिए। माल-ए-मुफ़्त -दिल-ए-बे
रहम की सोच रखने वाले इसी प्रवृति के लोग दंगे फ़साद के समय भी सक्रिय हो जाते हैं। इनका किसी
से भले ही कोई साम्प्रदायिक विद्वेष हो या न हो परन्तु इनका एकमात्र मक़सद मुफ़्त के माल की लूट
खसोट करना ही होता है। यही मुफ़्तख़ोरी की प्रवृति आपराधिक दुनिया की और भी लोगों के क़दम
खींचती है। इन लोगों को या ऐसे लोगों को नैतिक शिक्षा देने की सरकार या समाज के पास कोई
व्यवस्था नहीं है। माल-ए-मुफ़्त-दिल-ए-बे रहम की यह प्रवृति समाज के लिए तो कलंक है ही देश और
देशवासियों की बदनामी का भी एक बड़ा कारण बन सकती है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *