भारतीय इतिहास के उस काले दिन से पूरा विश्व भलीभांति परिचित है जबकि 30 जनवरी 1948 को 78
वर्षीय राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की दिल्ली के बिड़ला मंदिर में कुछ हिंदुत्ववादी लोगों द्वारा एक बड़ी
साजि़श के तहत दिन-दहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। गांधी की हत्या में जिन लोगों को
नामज़द किया गया था उनमें नाथू राम गोडसे, नारायण आप्टे, शंकर किशनैया, गोपाल गोडसे, मदनलाल
पाहवा, दिगंबर रामचंद्र बडगे, विनायक दामोदर सावरकर तथा विष्णु करकरे के नाम शामिल थे। इनमें
नाथूराम गोडसे तथा नारायण आप्टे को तो अदालत के आदेश पर 15 नवंबर 1949 को अंबाला के केंद्रीय
कारागार में फांसी दे दी गई जबकि शंकर किसनैया व विष्णु करकरे को आजीवन कारावास की सज़ा दी
गई। गांधी के हत्यारे भारत में हिंदू राष्ट्र की स्थापना का स्वप्र देखा करते थे। आज भी उनकी यह
कोशिशें पूरे ज़ोर-शोर के साथ जारी हैं। भले ही महात्मा गांधी की हत्या 1948 में इन्हीं हिंदू राष्ट्र के
पैरोकारों द्वारा क्यों न कर दी गई हो परंतु यह भी सच है कि हत्या के बाद महात्मा गांधी के सत्य-
अहिंसा तथा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत जिसे दुनिया गांधीवादी सिद्धांतों के नाम से भी जानती है न
केवल भारतवर्ष बल्कि पूरे विश्व के लिए न केवल गांधी बल्कि भारतवर्ष की अस्मिता व गरिमा की
पहचान बन गए।
दुर्भाग्यवश पूरा विश्व जहां भारतवर्ष को गांधी के भारत तथा गांधीवादी सिद्धांतों पर चलते हुए विश्व को
प्रेम, शांति, सद्भाव तथा अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले देश के रूप में जानता है वहीं इसी देश में आज भी
गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के शुभचिंतकों, उसके पैरोकारों, उसके हत्या जैसे कृत्य को सही ठहराए
जाने वालों तथा उस हत्यारे की विचारधारा का समर्थन करने वालों की सं या भी दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही
जा रही है। भले ही किसी व्यक्ति की मौत के बाद वह व्यक्ति इस संसार से क्यों न चला जाए परंतु उस
व्यक्ति के विचार अथवा उसकी विचारधारा कभी नहीं मरती। किसी न किसी रूप में उसके समर्थक उस
व्यक्ति को उसकी विचारधारा के पक्ष या विरोध में ज़रूर याद करते हैं। भारतवर्ष में भी गांधी तथा गोडसे
दोनों के साथ ऐसा ही होते देखा जा रहा है। अंतर केवल इतना है कि महात्मा गांधी की विचारधारा का
अनुसरण करने वाले तथा उसी विचारधारा को अर्थात् गांधी दर्शन को ही भारतीय दर्शन बताने वाले वह
लोग हैं जो धर्म के आधार पर भारत से विभाजित होकर नए राष्ट्र के रूप में निर्मित पाकिस्तान के
निर्माण के बावजूद भारतवर्ष को धर्म आधारित राष्ट्र मानने के बजाए एक ऐसे राष्ट्र के रूप में मानते आ
रहे हैं जहां सभी धर्मों व जातियों के लोग समान रूप से समान अधिकार के साथ रहते आ रहे हैं।
ठीक इसके विपरीत हिंदूवादी मत रखने वालों का यह मानना है कि भारतवर्ष को हिंदू राष्ट्र के रूप में
उसी प्रकार मान्यता मिलनी चाहिए जैसेकि पाकिस्तान को एक मुस्लिम देश के रूप में मान्यता दी गई
है। परंतु इसके पीछे एक राजनैतिक पेंच यह भी है कि जिस समय मोह मद अली जिन्ना के नेतृत्व में
मुस्लिम लीग भारत में आज़ादी से पहले भारतीय मुसलमानों को एक झंडे के नीचे लाकर भारतीय
मुसलमानों को एकजुट करने का प्रयास कर रही थी तथा इसके मुकाबले में हिंदू महासभा देश के हिंदुओं
को एक साथ लाकर हिंदू राष्ट्र के गठन के प्रयास में लगी थी वहीं तीसरी ओर देश का सबसे बड़ा वर्ग
जिसमें कि हिंदू-मुस्लिम, सिख-ईसाई सभी शामिल थे, ऐसा भी था जो मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा जैसे
धर्म की अतिवादी राजनीति करने वालों से अलग हटकर कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में संयुक्त रूप से देश से
अंगे्रज़ों को भगाकर एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की परिकल्पना में लगा था। 1948 के बाद जब भारत-पाक
का विभाजन हुआ उस समय भी भारतवर्ष के मुसलमानों ने समग्र रूप से मोहम्मद अली जिन्ना का साथ
देने से इंकार कर दिया तथा केवल पश्चिमी भारत के कुछ राज्यों से एवं पूर्वी क्षेत्र के बिहार-बंगाल जैसे
राज्यों के मुसलमान जिन्ना के झांसे में आकर पश्चिमी व पूर्वी पाकिस्तान में जा बसे। जबकि शेष भारत
का अधिकांश मुसलमान भारत को ही अपनी मातृभूमि मानते हुए पाकिस्तान नहीं गया। इतना ही नहीं
बल्कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अब तक लाखों भारतीय मुसलमान ऐसे हैं जो अंग्रेज़ों से लेकर
अब तक देश के प्रत्येक दुश्मन से एक सच्चे राष्ट्रभक्त की तरह मुकाबला करते आ रहे हैं।
परंतु हिंदूवादी राजनीति करने वाले संगठनों में अभी भी इस बात की कसक बाकी है कि जब भारत से
विभाजित कर पाकिस्तान को एक अलग मुस्लिम राष्ट्र बनाया गया फिर आखिर शेष भारत को हिंदू राष्ट्र
क्यों नहीं घोषित किया गया? विचारधारा का यही द्वंद्व गांधी के जीवनकाल में भी था, उनकी हत्या के
समय भी और आज भी जि़ंदा है। खासतौर पर जब कभी दिल्ली या देश के किसी राज्य में हिंदूवादी
राजनीति करने वाली सरकारें सत्ता में आती हैं उस समय इन गोडसेवादी शक्तियों के हौसले और भी
बुलंद हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर वसुंधरा राजे सिंधिया के शासनकाल में राजस्थान के अलवर जि़ले
में एक उस समय के निर्माणधीन फ्लाईओवर पर किसी उत्साही गोडसेवादी व्यक्ति ने स्वयंभू रूप से पुल
का नाम 'राष्ट्रवादी नाथूराम गोडसे पुल' रख दिया। और जब गांधीवादियों द्वारा इसका विरोध किया गया
तब इस पट्टिका को पुलिस द्वारा हटाया गया व अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई। मेरठ
व कई अन्य शहरों में मौजूद गोडसे समर्थकों ने अपने कार्यालय में गोडसे की प्रतिमा स्थापित की हुई है
तथा वे उसकी वंदना भी करते रहते हैं। पिछले दिनों अलीगढ़ में तो कुछ सरफिरों द्वारा गांधी की हत्या
का पूरा मंचन किया गया तथा गांधी के पुतले पर एक भगवाधारी महिला द्वारा गोली चलाकर उसे
रक्तरंजित करने का नाटक टेलीविज़न पर भी दिखाया गया।
हालांकि सत्तारूढ़ हिंदूवादी संगठन गोडसे के महिमामंडन से अधिकारिक रूप से तथा मीडिया के समक्ष
स्वयं को अलग तो ज़रूर कर लेते हैं परंतु यह भी सच है कि यही लोग गोडसे के विचारों व सिद्धांतों से
स्वयं को अलग नहीं कर पाते। पिछले दिनों देश के प्रधानमंत्री के समक्ष पहली बार एक ऐसी असहज
स्थिति पैदा हुई जबकि उन्होंने अपनी ही भारतीय जनता पार्टी की भोपाल से उम्मीदवार प्रज्ञा ठाकुर के
विवादित बयान को लेकर न केवल कार्रवाई करने का दिखावा करना पड़ा बल्कि प्रधानमंत्री को अपने एक
साक्षात्कार में कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग करना पड़ा जोकि उन्होंने न तो कभी गुजरात दंगों के लिए किए
न ही गत् पांच वर्षों में घटी किसी और असहज कर देने वाली घटनाओं के लिए। गौरतलब है कि प्रज्ञा
ठाकुर जिसने यह कहा था कि-'एटीएस प्रमुख हेमंत करकरे इसलिए मारे गए क्योंकि मैंने उन्हे शाप दिया
था। उसी प्रज्ञा ने गांधी के हत्यारे गोडसे के बारे में यह कहा कि गोडसे देशभक्त थे, देशभक्त हैं और
देशभक्त रहेंगे। प्रज्ञा के इसी बयान के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहना पड़ा कि-'यह बहुत
खराब है, हर प्रकार से घृणा के लायक है, आलोचना के लायक है। किसी भी स य समाज में इस तरह
की भाषा और सोच स्वीकार नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी कहा कि मैं उन्हें इस बयान के लिए
मन से माफ नहीं कर सकता। गोडसे को राष्ट्रवादी कहने के बयान आने के बाद प्रज्ञा ठाकुर से भी
भाजपा ने माफी मंगवा ली थी। अब यह देश के लोगों को तय करना चाहिए कि वास्तव में राष्ट्रवादी हैं
कौन? वह लोग जो महात्मा गांधी की विश्व स्वीकार्य गांधीवादी विचारधारा तथा गांधी दर्शन का अनुसरण
करते हैं या फिर वे लोग जो हत्यारे गोडसे को कभी खुलकर तो कभी दबी ज़ुबान से उसे राष्ट्रवादी कहते
फिरते हैऔर हत्या व हिंसा का समर्थन करते हैं?