दुनिया में पानी के बहुत से मेले लगते हैं, लेकिन कुंभ जैसा कोई कोई नहीं। स्वीडन की स्टॉकहोम, ऑस्ट्रेलिया की
ब्रिसबेन, अमेरिका की हडसन, कनाडा की ओटावा…जाने कितने ही नदी उत्सव साल-दर-साल आयोजित होते ही हैं,
लेकिन कुंभ!.. कुंभ की बात ही कुछ और है। जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी.. यहां तक कि राष्ट्र की सरहदें भी कुंभ में
कोई मायने नहीं रखती। साधु-संत-समाज-देशी-विदेशी… इस आयोजन में आकर सभी जैसे खो जाते हैं। कुंभ में
आकर ऐसा लगता ही नहीं कि हम भिन्न हैं। हालांकि पिछले 60 वर्षों में बहुत कुछ बदला है, बावजूद इसके यह
सिलसिला बरस.. दो बरस नहीं, हजारों बरसों से बदस्तूर जारी है। छः बरस में अर्धकुंभ, 12 में कुंभ और 144 बरस
में महाकुंभ! ये सभी मुझे आश्चर्यचकित भी करते हैं और मन में जिज्ञासा भी जगाते हैं कि आखिर कुंभ है क्या?
कुंभ क्या है?
नदी में स्नान कर लेने मात्र का एक आस्था पर्व या इसकी पृष्ठभूमि में कोई और प्रयोजन थे? यदि प्रयोजन सिर्फ
स्नान मात्र ही हो, तो कल्पवासी यहां महीनों कल्पवास क्यों करते हैं? सिर्फ स्नान के लिए इतना बड़ा आयोजन
क्यों? क्या कुंभ हमेशा से ही ऐसा था या समय के साथ इसके स्वरूप में कोई बदलाव आया? अर्धकुंभ, कुंभ और
महाकुंभ की नामावली, समयबद्धता तथा अलग-अलग स्थान पर आयोजन के क्या कोई आधार हैं? यह पूरा
आयेाजन सिर्फ आस्था पर आधारित है या इसके पीछे कोई वैज्ञानिक अथवा सामाजिक कारण भी हैं? करीब छह
बरस पहले ये तमाम सवाल जलपुरुष के नाम से विख्यात पानी कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह के मन में उठे थे। उनके
साथ मिलकर इन प्रश्नों के उत्तर तलाशते-तलाशते जो सूत्र हमारे हाथों लगे, वे सचमुच अद्भुत हैं और भारतीय
ज्ञानतंत्र की गहराई का प्रमाण भी। कुंभ का इतना वैज्ञानिक व तार्किक संदर्भ जान मेरा मन आज भी गर्व से भर
उठता है। कुंभ सिर्फ स्नान न होकर कुछ और है। आखिर कोई तो वजह होगी कि लाख-दो लाख नहीं, करोड़ों लोग
सदियों से बिन बुलाये चले आ रहे हैं हमारी नदियों का मेहमान बनने? 22 अप्रैल, 2016 से सिंहस्थ कुंभ में शिप्रा
फिर मेहमाननवाजी कर रही है। इस मेहमाननवाजी को लेकर महाकाल का उज्जैन आज फिर पेश है, एक नई अदा
के साथ। सदियों से चल रहा है यह सिलसिला। क्यों? क्या सिर्फ स्नान के लिए? अब तो हमारी नदियों का जल
स्नान योग्य भी नहीं रहा। बावजूद इसके भी क्यों खिंचे चले आते हैं दुनिया भर से लोग कभी शिप्रा, गोदावरी तो
कभी त्रिवेणी तट पर? यह विचार करने योग्य प्रश्न हैं। क्या कुंभ में आने वाले प्रत्येक स्नानार्थी को उन सूत्रों को
नहीं जानना चाहिए?
कुंभ को जानना जरूरी क्यों?
भारत के ऋषि-आचार्य भली-भांति जानते थे कि विज्ञान तर्क करता है, सवाल उठाता है और जवाब मांगता है। वे
इससे भी वाकिफ थे कि आस्था सवाल नहीं करती, वह सिर्फ पालन करती है। अतः उन्होंने समाज को नैतिक व
अनुशासित बनाये रखने के लिए लंबे समय तक वैज्ञानिक व तार्किक रीति-नीतियों को धर्म, पाप, पुण्य और मर्यादा
जैसी आस्थाओं से जोड़कर रखा। समाज को विज्ञान की जटिलताओं व शंकाओं में उलझाने की बजाय आस्था की
सहज, सरल और छोटी पगडंडी का मार्ग अपनाया। लेकिन अब आधुनिक विज्ञान और तकनीक का जमाना है। हम
21वीं सदी में हैं। नई पीढ़ी को हमारी आस्थाओं के पीछे का विज्ञान व तर्क बताना ही होगा। भारत का पांरपरिक
ज्ञान भले ही कितना गहरा व व्यावहारिक हो, लेकिन सिर्फ पाप-पुण्य कहकर हम नवीन पीढ़ी को उसके अनुसार
चलने को प्रेरित नहीं कर सकते। उसे तर्क की कसौटी पर खरा उतारकर दिखाना ही होगाय वरना् भारत का अद्भुत
ज्ञान जरा से आलस्य के कारण पीछे छूट जायेगा। उस पर जमी धूल को पांेछना ही होगा। कुंभ के असल मंतव्य
को न समझाये जाने का ही परिणाम है कि आज कुंभ… नदी समृद्धि बढ़ाने वाला पर्व होने की बजाय, नदी में
गंदगी बहाने वाला एक दिखावटी आयोजन मात्र बनकर रह गया है। जरूरी है कि कुंभ आने से पहले प्रत्येक
आगंतुक कुंभ को जानेय तभी हम कुंभ के प्रति न्याय कर पायेंगे।
कुंभ की आस्था
आपने कुंभ राशि के प्रतीक के रूप में कलश को देखा होगा। कलश यानी घट अर्थात घड़ा! आस्था कहती है कि
समुद्र मंथन के दौरान निकले अमृत कलश को दानवों से बचाने के लिए दैवीय शक्तियां 12 दिन तक उसे ब्रहाण्ड
में छिपाने की कोशिश करती रहीं। इस दौरान उन्होंने जिन-जिन स्थानों पर अमृत कलश को रखा, वे स्थान कुंभ के
स्थान हो गये। गर्ग संहिता आदि पुराणों में यह उल्लेख मिलता है, तो अथर्ववेद कहता है कि समुद्र मंथन के समय
अमृत से पूर्ण कुंभ जहां-जहां स्थापित किया गया, वे चार स्थान कुंभ के तीर्थ हो गये। अन्य पुराण 12 वर्षों में
सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के योगायोग के चार प्रभाव बिंदुओं को कुंभ का स्थान मानते हैं। नासिक (महाराष्ट्र) में
गोदावरी नदी का तट, उज्जैन (मध्यप्रदेश) में शिप्रा के तट पर, इलाहाबाद में गंगा-यमुना की संगमस्थली प्रयाग
और हरिद्वार में गंगा का किनारा… ये चार स्थान आज भी कुंभ के स्थान बने हुए है। आस्था कहती है कि दैवीय
शक्तियां कुंभ को लेकर 12 दिन तक चक्कर लगाती रहीं। उनका एक दिव्य दिवस, मृत्युलोक के एक वर्ष के बराबर
होता है। अतः 12 दिव्य दिवस, मानव गणना के 12 वर्ष हो गये और इन 12 वर्षों के अंतराल को दो कुंभ का
अंतराल मान लिया गया।
कुंभ का विज्ञान
इस ब्रह्माण्ड को भरा हुआ कुंभ ही कहा गया है। वैज्ञानिक इसी से दिन, रात, महीना और 12 महीनों का एक वर्ष
की गणना करते रहे हैं। पृथ्वी एक दिन में अपनी धुरी पर एक बार और 12 महीनों में सूर्य की एक परिक्रमा पूरी
करती है। यह हम सभी जानते हैं। भारत के ऋषि वैज्ञानिक तर्क देते हैं कि ब्रह्माण्ड में दो तरह के पिण्ड हैं,
ऑक्सीजन प्रधान और कार्बन डाइऑक्साइड प्रधान। ऑक्सीजन प्रधान पिण्ड जीवनवर्धक होते हैं और कार्बन
डाइऑक्साइड प्रधान पिण्ड जीवनसंहारक। जीवनवर्धक पिण्डों और तत्वों का सर्वप्रधान केन्द्र होने के नाते ग्रहों में
बृहस्पति का स्थान सर्वोच्च माना गया है। शुक्र सौम्य होने के बावजूद संहारक है। शायद इसीलिए पुराणों ने
बृहस्पति की देवों और शुक्र की आसुरी शक्तियों के गुरू के रूप में कल्पना की है। शनि ग्रह जीवनसंहारक तत्वों का
खजाना है। सूर्य के द्वादशांश को छोड़ दें, तो शेष भाग जीवनवर्धक है। सूर्य पर दिखता काला धब्बा ही वह हिस्सा
है, जिसे जीवनसंहारक कहा गया है। अमावस्या के निकट काल में जब चन्द्रमा क्षीण हो जाता है, तब संहारक
प्रभाव डालता है। शेष दिनों में… खासकर पूर्णिमा के निकट दिनों में चन्द्रमा जीवनवर्धक हो जाता है। मंगल.. रक्त
और बुद्धि दोनों पर प्रभाव डालता है। बुध उभय पिण्ड है। जिस ग्रह का प्रभाव अधिक होता है, बुध उसके अनुकूल
प्रभाव डालता है। छाया ग्रह राहु-केतु तो सदैव ही जीवनसंहारक यानी कार्बन डाइऑक्साइड से भरे पिण्ड हैं। इनसे
जीवन की अपेक्षा करना बेकार है।
कुंभ की भिन्न तिथियों व स्थानों का औचित्य
ज्योतिष विज्ञान अलग-अलग ग्रहों को अलग-अलग राशियों के स्वामी मानता है। जीवनवर्धक ग्रहों का प्रधान ग्रह
बृहस्पति जब-जब संहारक ग्रहों की राशि में प्रवेश कर जीवनसंहारक तत्वों के कुप्रभावों को रोकने की कोशिश करता
है। ऐसी तिथियां शुभ मानी गई हैं। ऐसे चक्र में एक समय ऐसा आता है, जब बृहस्पति ग्रह जीवनसंहारक शनि की
राशि कुंभ में प्रवेश करता है। इसी काल में जब सूर्य और चन्द्रमा मंगल की राशि मेष में आ जाते हैं, तब इनके
प्रभाव का केन्द्र बिंदु हरिद्वार क्षेत्र बनता है। इसी प्रकार एक समय बृहस्पति ग्रह दैत्यगुरू शुक्र की राशि वृष में
प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा का शनि की राशि मकर में प्रवेश होता है। यह ऐसी तिथि होती है, जब सूर्य
दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य का उत्तरायण होना कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुभ माना जाता है। ऐसे समय में
उत्तर प्रदेश का इलाहाबाद प्रभाव क्षेत्र बनता है। 2013 का कुंभ ऐसे ही संयोग का परिणाम था। जब भादों की
भयानक धूप होती है, तब सूर्य के मारक प्रभाव से बचाने के लिए बृहस्पति सूर्य की राशि सिंह में प्रवेश करता है।
इसी समय जब तक सूर्य चन्द्र सहित सिंह राशि पर बना रहता है, तब तक महाराष्ट्र का नासिक इसका केन्द्र बिंदु
बनता है। ऐसे समय नासिक में गोदावरी तीरे कुंभ पर्व की तरह मनाया जाता हैं। जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, सूर्य
मंगल की मेष राशि में हो और चन्द्रमा शुक्र की राशि तुला में पहुंच जाये, तो महाकाल का पवित्र क्षेत्र उज्जैन
इसका प्रभाव बिंदु बनता है। इसी के लिए उज्जैन के कुंभ को सिंहस्थ कुंभ कहा जता है। कुंभ के भिन्न समय व
स्थान का यही विज्ञान है।
कुंभ का सिद्धांत
आकाश हो या धरती, हर जगह… हर काल में दो तरह की शक्तियां रही हैं, नकारात्मक और सकारात्मक।
नकरात्मक शक्तियां आज भी आसुरी कृत्यों का ही प्रतीक मानी जाती हैं। सकारात्मक शक्तियां हमेशा ही देवरूप में
पूजनीय रही है। जो लेता कम है और देता ज्यादा है… वह देवता। जो देता कम है और अपने निजी के लिए दूसरों
का सर्वस्व छीन लेने की इच्छा रखता है, वह दानव। यही परिभाषा हर काल में सर्वमान्य रही। राम-कृष्ण देव
कहाये और ज्ञानी ब्राह्मण होने के बावजूद रावण को राक्षस कहा गया। आज हम भ्रष्टाचारियों को उनके नकारात्मक
कृत्यों के कारण ही तो कोसते हैं। अपना खजाना भरने के लिए दूसरों की जमीन, पानी, खेती पर काबिज करने
वाले देव-दानव में से किस परिभाषा में आते है? कभी विचार कीजिए।
खैर! अगर वेद और पुराणों की मानें तो भी, और विज्ञान की मानें तो भी.. एक निष्कर्ष तो निर्विवाद है। कुंभ की
आस्था और विज्ञान..दोनों ही इस बात की पुष्टि करते हैं कि जब-जब जीवनवर्धक अर्थात सकरात्मक व रचनात्मक
शक्तियों द्वारा जीवनसंहारक तत्वों यानी नकारात्मक.. विनाशक शक्तियों के दुष्प्रभाव को रोकने की कोशिश की
गई, तब-तब का समय व कोशिश कुंभ के नाम से विख्यात हो गये। सिद्धांत यही है। अच्छी ताकतों द्वारा बुरी
ताकतों को रोकने की कोशिश में एकजुट होने की परिपाटी ही कुंभ है। भारत का वर्तमान आज पुनः ऐसे ही कुंभ
मांग कर रहा है।
कुंभ का व्यवहार
पृथ्वी पर आने से इंकार करते हुए गंगा ने राजा भगीरथ से एक प्रश्न किया था, मैं इसलिए भी पृथ्वी पर नहीं
जाऊंगी कि लोग मुझमें अपने पाप धोयेंगे और मैं मैली हो जाऊंगी। तब मैं अपना मैल धोने कहां जाउंगी? तब राजा
भगीरथ ने वचन दिया था- माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली हैय
जो संसार से ऊपर होकर अपने आप में शांत हैंय जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन
हैं… वे आपके द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग स्पर्श व श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देंगे।
कुंभ के वाहक
इस संदर्भ के आलोक में कहा जा सकता है कि राजा भगीरथ के इसी वचन को निभाने के लिए कुंभ की परिपाटी
बनी। राजा भगीरथ स्वयं कुंभ के प्रथम वाहक बने। प्रजा.. राजा के पुत्र समान ही होती है। राजा सगर के पुत्रों के
रूप में 60 हजार की आबादी के कल्याण के लिए वे गंगा से सीधे अवध प्रांत में अवतरित होने का भी अनुरोध कर
सकते थे, लेकिन नहीं, उन्होंने गंगा को गंगोत्री से गंगासागर तक ले जाकर लगभग आधे भारत को समृद्धि का
स्रोत दिया।
वर्तमान मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के वर्तमान नामकरण वाले इलाकों में जब कभी पानी का संकट हुआ,
तो गौतम नामक एक ब्राह्मण प्रतीक बन सामने आया और गोदावरी जैसी महाधारा बन निकली। ब्रह्मपुराण में इस
प्रसंग का जिक्र करते हुए गोदावरी को गंगा का ही दूसरा स्वरूप कहा गया है। विन्ध्यगीरि पर्वतमाला के उत्तर बहने
वाली गंगा.. भागीरथी कहलाई और दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा… गोदावरी के नाम से विख्यात हुई। इसे
गौतमी गंगा भी कहा जाता है। स्कंदपुराण में वर्तमान आंध्र प्रदेश कभी नदीविहीन रहे क्षेत्र के रूप में उल्लिखित है।
दक्षिण के इस संकट ग्रस्त में एक ऋषि का पौरुष प्रतीक बना। ऋषि अगस्त्य के प्रयास से ही आकाशगंगा दक्षिण
की धरा पर अवतरित होकर सुवर्णमुखी नदी के नाम से जीवनदायिनी सिद्ध हुई। भगीरथ-एक राजा, गौतम-एक
ब्राह्मण और अगस्त्य-एक ऋषि… तीनों गंगा के एक-एक रूप के अविरल प्रवाह के उत्तरदायी बने ये तीनों ही रचना
के प्रतीक! कुंभ के वाहक!
कुंभ के ऐसे वाहक आप भी हो सकते हैं। राजा भगीरथ का गंगा को दिया वचन निभाना आपका और हमारा भी
दायित्व है। अपने गांव-शहर-कस्बे की किसी छोटे से प्रवाह, छोटे सी जलसंरचना को पुनर्जीवित कर… छोटी
वनस्पति को जीवन देकर आप इस दायित्व निर्वाह का ही काम करेंगे। सकारात्मक शक्तियों को एकजुट करने और
उन्हें प्रकृति, समाज अथवा राष्ट्रहित में प्रेरित करने का काम भी कुंभ का ही काम है। आज भारत को इस दायित्व
निर्वाह की बड़ी आवश्यकता है। यूं भी इस दायित्व का निर्वाह किए बगैर कुंभ में स्नान का हक किसी को नहीं।
क्या आपको है? सोचिए! तब निर्णय लीजिए।… तब शायद मेरा इस लेख को लिखना सफल हो जाये।