अतीत की एक ढीठ खिड़की

asiakhabar.com | May 7, 2019 | 5:31 pm IST
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इतने वर्षों के बाद, जिन्दगी की जद्दोजहद और जिम्मेदारियों के बीच कभी कभी मन की बहुत जिद के बाद जब
भी मैंने अतीत की ढीठ खिड़की खोली है, नन्हे दस वर्षीय रघु को वहां उस मोड पर खडे पाया है, उसी एक शाम के
झुटपुटे में गुमसुम उदास….अधूरे छूट गये सपनों और बेगाने से हो गये अपनों की पीडा के साथ। वही मोड जहां रघु
छूट गया ठिठक कर और जिन्दगी राघव के कान उमेठ ले गयी अपने टेढे मेढे रास्तों पर…
उस शाम मैं दादी के पलंग पर बैठ स्कूल से मिला होमवर्क पूरा कर रहा था। दादी बैठी मेरी युनीफॉर्म का नया
स्वेटर अपनी बूढी आंखों और दर्द करती उंगलियों के बावजूद पूरा कर रही थीं। अरुणा होमवर्क अधूरा छोड स्टापू
खेलने में लगी थी। तभी बाऊ जी की साईकल के साथ साथ अरुणा की उत्साह भरी आवाज आई,
बाऊ जी आ गये!
अम्मा आज बाऊ जी दुकान से जल्दी कैसे आ गये?
दादी खामोश थीं। बाऊ जी अन्दर आ चुके थे, आते ही मेरे पास बैठ कर सर पर हाथ फेरने लगे,
क्यों रे रघु आज होमवर्क पूरा नहीं किया?
ज्यादा था बाऊजी।
रघु बता न अपने बाऊजी को कि तुझे आज ज्यादातर सारे विषयों में सबसे ज्यादा नम्बर मिले हैं कक्षा में।
सच अम्मा! क्यों रघु? मेरा बेटा एक दिन मेरा नाम ऊंचा करेगा। तेरे हेडमास्टर साहब दुकान पर आये थे कह रहे
थे हिन्दी और अंग्रेजी दोनों के कविता पाठ में तू र्फस्ट आया है। तुझे अगले साल मैं आर्मी स्कूल में डाल दूंगा।
हां! वो सब देखा जाएगा, आज तू दुकान से जल्दी कैसे उठ गया? अम्मा बोली
अम्मा कार्डस छप कर आ गये हैं।
ऐ रघु-अरुणा तुम बाहर जाकर खेलो।
अम्मा मेरा होमवर्क जरा सा बचा है!
बाद में…मुझे तेरे बाऊजी से बात करनी है।
बेटा बस दो मिनट।
मैं किताबें उठाते हुए सोच रहा था कि ऐसी क्या बात है जो दादी और बाऊजी को हम बच्चों के पीछे से करनी है।
ऐसा तो कभी हुआ नहीं। कुछ तो है….घर में अजीब सी हलचल है। पिछले कई दिनों से वह स्कूल से घर लौटने पर
कुछ लोगों को दादी के पास बैठा देखता आया है। पिछले सोमवार तो शाम को उन लोगों के आने पर बाऊ जी
दुकान से घर आ गये थे और हम याने मैं और अरुणा दुकान पर दो घंटे बैठे थे। घर जाने पर दादी ने मिठाई
खिलाई थी।
मैं बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गया, दादी के मूढे पर। अरुणा फिर स्टापू खेलने लगी मैना के साथ, मैना ने बडी
बडी आंखों से मुझे देखा और अरुणा से पूछने लगी, आज क्या हुआ राघव को? अरुणा ने कंधे उचका दिये। एक
मैना ही है जो यहां मोहल्ले में मुझे मेरे पूरे नाम से बुलाती है। मेरी कक्षा में जो पढती है। मैना लंगडी टांग से
कूदते हुए मुझे देखते हुए आऊट हो गयी।
क्या मैना, तुझे नहीं खेलना तो तू जा।

मुझे हंसी आ गयी और अरुणा चिढ गयी। तभी बाऊजी का बुलावा आ गया और हम दोनों घर के अन्दर चले गये।
चलो दोनों तैयार हो जाओ, बहुत दिन हो गये तुम्हें घुमा कर लाये। आज पहले कनॉट प्लेस चलेंगे कुछ खरीदारी
करेंगे, फिर वहां से तुम्हारी मनपसन्द जगह से डोसा और छोलेभटूरे खिला कर लाएंगे।
हम दोनों ही उत्साह से खिल पडे।अरुणा दादी से चोटी बनवाते हुए बार बार आग्रह कर रही थी –
चलो न अम्मा मजा आएगा।
नाबेटा मुझसे चला नहीं जाता पैदल।
आप हमेशा टालती होहमारी मम्मी तो हैं नहीं और आप हो कि चलती नहीं।
बाऊ जी ने अम्मा को देखा अम्मा ने बाऊजी को, फिर कहने लगी,
अगर नारायण सब ठीक करें तो तेरी ये इच्छा भी पूरी होगी।
अरुणा जिद नहीं करते बच्चे। साईकल पर हम चार नहीं आ सकते।
बाऊजी! मेरा होमवर्क…
आकर कर लेना
कनाट प्लेस जाकर हमने खूब खरीदारी की मेरे अरुणा के नये कपडे, जूते, खिलौने, गुब्बारेआज बाऊ जी ने आर्थिक
परेशानियों की परवाह किये बिना दिल खोल कर रख दिया था हमारे लिये। घूम घाम कर भूख लग आई थी तब
हमने अपने मन पसन्द नॉवल्टी रेस्टोरेन्ट आकर डोसा और छोले भटूरे का आर्डर किया।
बाऊजी अचानक यहां बैठ कर चुप से हो गये जैसे कहीं कुछ अटक रहा हो भीतर। मम्मी के गुजर जाने के बाद से
एक मैं ही था जो बाऊजी के सबसे करीब रहा था। उनके एकान्त, दर्द और संघर्ष को मन ही मन बांटते हुए। यहां
तक कि सात साल की उमर में मम्मी के दाह संस्कार के समय भी श्मशान में मैं उनके साथ खडा था। मां की
मृत्यु ने मुझे अतिरिक्त रूप से संवेदनशील बना दिया था। उनके चेहरे के हर बनते बिगडते भाव को अपनी सीमाओं
तक तो मैं थोडा-बहुत भांप लेता था। आज कुछ था जो उन्हें उलझा रहा था।
अरुणा अपनी गुडिया के बाल संवारने में व्यस्त थी। मैं ने अपने खिलौने बगल में रख दिये थे और हू-ब-हू अपने
पिता की ही मुद्रा में टेबल पर हाथ बांध बैठ गया। आर्डर सर्व होने की प्रतीक्षा के दौरान बाऊ जी ने कुछ कहने की
मुद्रा में मेरी आंखों में झांकाघनी बरौनियों वाली मेरी गहरी भूरी आंखों में उस पल न जाने क्या था कि वो फिर
हिचक गये।
रघु। कहीं दूर से आती मालूम हुई पापा की आवाज।
जी!
उन्होने शर्ट की जेब से कार्ड निकाल कर मेरे सामने रख दिया।
आने वाले इतवार को शादी है।
किसकी बाऊजी? अरुणा चहकी।
मैं कार्ड उलट पुलट कर देख चुका था। दादी का नाम, घर का पता, पापा का नाम और संग लग कर जुडा कोई
अनजाना नाम। विश्वास नहीं करता अगर पापा स्वयं न कहते।

शादी क्या है, बस गुरुद्वारे में रस्म है, तुम्हारी नई मम्मी को घर लाने की। फिर दावत बस्स।
अरुणा पर मैं नहीं जान सका कि उस क्षण क्या बीता। मैं चैंक गया था, नई मम्मी! कोई अनजाना नाम मम्मी
कैसे हो सकता है? मम्मी तो मम्मी हीं थीं, नई मम्मी कैसे आ सकती है? छोले भटूरे ठण्डे हो गये…बाऊजी के
बहुत कहने पर भी आधा भी गले से नहीं उतरा।
हम लौट आए। मुझसे दो साल छोटी चंचल अरुणा उस पल अचानक जैसे सयानी हो गयी थी। उसने गुडिया लाकर
मेरे अनछुए खिलौनों के पास रख दी और अम्मा के पलंग पर खेस ओढ कर सो गयी। मुझे नये खटोले का राज
समझ आ गया कि क्यों अम्मा पिछले कई दिनों से मुझे अलग सुलाने की आदत डाल रही थी। आज बिना जिद
किये मैं खटोले पर पड गया। अम्मा दो गिलास दूध लेकर आई हम दोनों ने मना कर दिया। न जाने कब दादी की
सुनाई, किताब में पढी सौतेली मां और उनके बच्चों की कहानियां याद आती रहींदो आंसू लुढक आए और मैं न
जाने कब सो गया।
सुबह देर से जागा और स्कूल न जा सका, अरुणा जा चुकी थी। नाश्ते के समय अम्मा ने समझाया, रघु, देख बेटा,
तेरे पापा बहुत अकेले हैं। उन्हें साथी की जरूरत है। आज मैं हूं कल मेरे मरने पर तुम्हें कौन संभालेगा?
हजारों प्रश्न उठा देता था अम्मा का एक एक वाक्य। तब नहीं समझ सका था रघु हजार अम्मा के समझाने के बाद
भी, कि इतने बडे कुटुम्ब में होने के बावजूद, एक प्रौढ होता आदमी अपनी अम्मा और बच्चों के होते हुए भी कैसे
अकेला हो सकता है? अम्मा भी तो भरी जवानी में विधवा हो गई थी, क्या उसे भी कोई ऐसी तलाश रही होगी?
बाऊ जी के तो सौतेला पिता नहीं था फिर वे अपने बच्चों के लिए नई मां क्यों ला रहे थे? नहीं समझ सका रघु वे
सामाजिक तौर तरीके जो पति विहीन महिला को तो रोकते हैं पर पत्नी विहीन आदमी को नहीं? नहीं समझा तब
रघु पुरूष के अकेलेपन की व्यथा और कमजोरी को और नारी का स्वयं में सम्पूर्ण और शक्ति होना। आज समझता
है वह कि उसकी अम्मा हमेशा के लिये क्यों एक आर्दश नारी बन गई थी उसके लिये, क्यों उसके समय समय पर
कहे गये वाक्य उसके लिये जीवन में ब्रह्म वाक्य साबित हुए!
किन्तु उस एक शाम ने मुझे सयाना बना दिया थाजो होना था हुआ। उस रात जो होमवर्क छूटा वो अकसर छूटने
लगा नई मां आई…मुझे आर्मी स्कूल में डाला गया…लेकिन पढाई से मेरा मन एक बार जो उचट गया थावो कभी
नहीं लगा। सच्चा, सयाना होशियार रघुवहीं छूट गया…जिन्दगी ने जिसके कान पकड कर राह पर लाने की कोशिश
की वो विद्रोही, जिद्दी राघव थापता नहीं जिन्दगी मुझे ढर्रे पर ला सकी या नहीं पर अपनी शर्तों पर मैं ने जिन्दगी
को झुका ही लिया। आज जब मैं सफल हूं, संतुष्ट भी…फिर भी अतीत की ढीठ खिड़की के बाहर उस मोड पर खडा
रघु अकसर अपनी आंखों में यह प्रश्न लिये खडा रहता है कि-
अगर उस दिन वैसा न हुआ होता तो राघव तो जिन्दगी क्या होती? सफल तो आज भी है तब भी होता पर क्या
जिन्दगी से इतना कुछ सीखा होता? स्वयं सक्षम होने का गर्व जो उसे हर स्थिति में ऊंचा बनाता है वह तब होता?
बहुत अधिक सुरक्षित और बचपन का सा बचपन तो सब बिताते हैं तेरा अनोखा जीवन के पाठ जल्दी जल्दी पढाता
बचपन किसका होता है?


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