विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष में चुनाव प्रक्रिया की देख-रेख व संचालन करने वाला भारतीय
निर्वाचन आयोग बड़ी ही जिम्मेदारी के साथ इस विश्वस्तरीय चुनौतीपूर्ण कार्य को करता आ रहा है।
चुनाव आयोग आवश्यकता अनुसार समय-समय पर अपने नियमों व कानूनों में तरह-तरह के परिवर्तन
भी करता रहता है। आयोग की हमेशा यही कोशिश रहती है कि भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अंतर्गत्
होने वाला सबसे महत्वपूर्ण कार्य अर्थात् चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर पूरी पारदर्शिता तथा निष्पक्षता के साथ
संपन्न हो ताकि देश को जनाकांक्षाओं के अनुरूप जनहितकारी संसद,विधानसभा व सरकार मिल सके।
परंतु निर्वाचन संबंधी अनेक कानून अभी भी ऐसे हैं जिनमें आमूल-चूल बदलाव किए जाने की ज़रूरत है।
हालांकि इस प्रकार के कानूनों को बदलने का अधिकार केंद्र सरकार को ही है। ऐसे कानूनों को तथा
भारतीय संविधान में नेताओं के हित का ध्यान रखने वाली ऐसी व्यवस्था को लगता है हमारे संविधान
निर्माताओं ने केवल नेताओं के हितों को मद्देनज़र रखते हुए भारतीय संविधान में शामिल किया है।
इनमें पहला कानून किसी एक उम्मीदवार के एक से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ पाने जैसे नियम से
संबंधित है। हमारे देश में अक्सर यह देखा गया है कि कोई नेता जो किसी निर्वाचित सदन में अपनी
उपस्थिति भी ज़रूरी समझता है परंतु वही व्यक्ति मतदाताओं से भयभीत भी है तो ऐसा नेता एक से
अधिक स्थान से एक ही साथ चुनाव लड़ सकता है। और यदि वह व्यक्ति सभी सीटों से चुनाव जीत
गया तो उसे संवैधानिक रूप से केवल एक विजयी सीट अपने पास रखनी होती है और शेष जीती हुई
सीटों से त्यागपत्र देना होता है। शेष सीट अथवा सीटों से त्यागपत्र देने की स्थिति में निर्वाचन आयोग
उन रिक्त की गई सीटों पर पुन: चुनाव कराता है। गोया यह सारी कवायद केवल इसलिए की जाती है
ताकि वह नेता किसी भी तरह से सदन में प्रवेश ज़रूर पा सके। यहां यह सोचने का विषय है कि किसी
नेता का सदन में विजयी होकर पहुंचने का जिम्मा अथवा उसके द्वारा रिक्त की गई सीटों पर दोबारा
होने वाले चुनाव के खर्च का जिम्मा आखिर जनता का क्यों? यदि कोई नेता स्वयं को इतना लोकप्रिय
तथा राष्ट्र की सेवा हेतु स्वयं को एक आवश्यक 'सामग्री' समझता ही है फिर आखिर उसे मतदाताओं से
भयभीत होने या अपनी जीत सुनिश्चित करने वाली सीट तलाशने की ज़रूरत ही क्या है? एक ईमानदार,
सक्षम तथा लोकप्रिय नेता को इतना विश्वास अपने-आप में होना ही चाहिए कि वह जहां से भी चुनाव
लड़ेगा मतदाता उसे जीत ज़रूर दिलाएगा।
परंतु इस प्रकार की संवैधानिक व्यवस्था से साफ पता चलता है कि इसमें नेताओं के अपने स्वार्थ व हित
निहित हैं। और जनता के खून-पसीने की कमाई तथा सरकारी मशीनरी की एक ही कार्य के लिए बार-बार
परेड निश्चित रूप से गैर मुनासिब तथा अहितकारी है। ऐसी व्यवस्था भी की जा सकती है कि यदि कोई
व्यक्ति एक से अधिक स्थानों से चुनाव लड़ता है तथा सभी सीटों से जीतने की स्थिति में एक सीट को
अपने पास रखकर अन्य सीटों से त्यागपत्र देकर वहां उपचुनाव की स्थिति पैदा होती है ऐसे में उस
उपचुनाव का खर्च उसी प्रत्याशी से करवाया जाना चाहिए जिसने कि विजयी होने के बावजूद वह सीटें
खाली की हैं। अन्यथा नेताओं का हित साधने वाली ऐसी व्यवस्था में किसी भी तरह से जनता को कोई
भी हित नहीं जबकि जनता के पैसों की बरबादी ज़रूर होती है। इस प्रकार की व्यवस्था केवल हमारे ही
देश में मौजूद है। देश की ईमानदार तथा जनहितकारी संसद को चाहिए कि वह कानून में संशोधन कर
किसी भी नेता को एक से अधिक स्थान पर चुनाव लडऩे की व्यवस्था को समाप्त करने हेतु एक
संशोधन प्रस्ताव पारित करे।
इसी प्रकार नेताओं का हित साधने वाली दूसरी व्यवस्था यह है कि यदि कोई भी व्यक्ति चुनाव हार भी
जाता है तो भी उसे मंत्री, मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री यहां तक कि प्रधानमंत्री तक बनाया जा सकता है। बिना
चुनाव लड़े ही कोई भी व्यक्ति मंत्रिमंडल के किसी भी पद पर आसीन हो सकता है। यह व्यवस्था भी
कतई मुनासिब नहीं है बल्कि कहा जा सकता है कि इस प्रकार का कानून मतदाताओं को अपमानित
करने वाले कानून जैसा है। मतदाताओं को स्वयं सोचना चाहिए कि जिस उम्मीदवार को मतदाताओं ने
पराजित कर दिया और उसे निर्वाचित सदन में भेजने के योग्य नहीं समझा उसके बावजूद वही व्यक्ति
अगर पराजित होने के बावजूद मंत्री,मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बनकर मतदाताओं के समक्ष आकर खड़ा हो
ऐसे में यह मतदाताओं का अपमान है या नहीं? यदि जनता द्वारा नकारे गए किसी नेता को मंत्रिमंडल
में शामिल नहीं किया गया तो आखिर ऐसी कौन सी मुसीबत देश की राजनैतिक व्यवस्था में आ जाएगी?
और यदि किसी पराजित व्यक्ति को मंत्री बनाने की ज़रूरत भी पड़ सकती है तो ऐसे व्यक्ति को चुनाव
लड़वाने की ज़रूरत ही क्या है? उसे राज्यसभा अथवा विधानपरिषद् के माध्यम से भी सदन में लाने की
व्यवस्था संविधान ने पहले ही कर रखी है।
परंतु हमारे देश में इस संवैधानिक व्यवस्था का भी भरपूर दुरुपयोग होता आ रहा है। कोई भी व्यक्ति
जीते या हारे यदि सत्तारूढ़ दल के मुखिया अथवा आलाकमान की नज़र-ए-इनायत उस व्यक्ति पर है तो
उसका मंत्री बनना लाजि़मी है। भारतीय संविधान में नेताओं के प्रति अपनाए गए इस नर्म,लचीले तथा
नेताओं का हित साधने वाले रवैये की तुलना यदि हम प्रशासनिक व्यवस्था अर्थात् कार्यपालिका या किसी
अन्य क्षेत्र से करें तो वहां किसी भी प्रकार की अयोग्यता की कोई गुंजाईश नज़र नहीं आती। अर्थात् यदि
किसी व्यक्ति को किसी सरकारी पद पर पहुंचना है तो उसे परीक्षा पास करने से लेकर साक्षात्कार तक में
भी सफल या उत्तीर्ण होने की आवश्यकता है। यदि कोई अ यार्थी दोनों ही मंजि़लों को एक के बाद एक
पार नहीं कर पाता तो ऐसे व्यक्ति को सेवा का कोई अवसर नहीं दिया जाता। हद तो यह है कि संघ
लोक सेवा आयोग की परीक्षा में प्रत्येक वर्ष प्रत्येक अ यार्थी को प्राथमिक अथवा प्रवेश परीक्षा पास करनी
होती है। उसके बाद इस परीक्षा में सफल होने वाला छात्र मुख्य परीक्षा में बैठने का हकदार होता है। और
जब वह मुख्य परीक्षा में भी सफल हो जाता है तब उसे साक्षात्कार के अंतिम दौर से गुज़रना होता है।
इन तीनों ही मंजि़लों को पास करने के बाद ही वह व्यक्ति जनता की सेवा करने हेतु अपनी योग्यता
अनुसार विभिन्न श्रेणियों में विभाजित कर जनता के बीच भेजा जाता है। गोया यदि उस व्यक्ति ने प्रवेश
परीक्षा तथा मुख्य परीक्षा पास भी कर ली और साक्षात्कार में असफल रहा तो भी उस परीक्षार्थी को कहीं
भी किसी भी सेवा को कोई अवसर नहीं मिलता। यहां तक कि यदि वह छात्र अगले वर्ष पुन: इस परीक्षा
में शामिल होना चाहता है तो उसे इस परीक्षा के तीनों दौर से पुन: उसी प्रकार गुज़रना होता है।
सवाल यह है कि जब शिक्षित छात्रों,युवाओं तथा प्रतिभाशाली लोगों के लिए कानून व संविधान में कोई
ऐसी सुविधा नहीं दी गई है जिसके चलते कोई व्यक्ति साक्षात्कार अथवा मुख्य परीक्षा में असफल होने
या कम अंक हासिल करने के बावजूद कहीं सेवा कर सके फिर आखिर अनपढ़,अज्ञानी तथा जनता द्वारा
नकारे गए नेताओं के लिए इस प्रकार की सुविधाजनक व उन्हें लाभ पहुंचाने वाली व्यवस्था का आखिर
क्या अर्थ है? ऐसी व्यवस्था ऐसा कानून निश्चित रूप से नेताओं के लिए तो हितकारी है परंतु यह जनता
के लिए पूरी तरह से अहितकारी है।