विदेश यात्रा का सरकारी जुगाड़

asiakhabar.com | April 3, 2019 | 4:17 pm IST
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कुमार साहब सुबहसुबह अपनी सोसाइटी के गार्डन में टहल रहे थे कि तभी पीछे से जेठालाल ने आवाज लगाई, भई, मुबारक हो. जैसे ही कुमार साहब ने मुबारकबाद शब्द सुना, वे अनजान बनते हुए धीरे से बोले, अरे जेठालालजी, किस बात की मुबारकबाद दे रहे हैं?

जेठालाल बोले, भई, आप का नाम ट्रांसमीटर मैंटेनैंस की 5 दिनों की ट्रेनिंग के लिए सरकारी खर्च पर अमेरिका के शिकागो शहर स्थित एक कंपनी में जाने के लिए सलैक्ट कर लिया गया है. पार्टी न सही, मिठाईसिठाई तो बनती ही है न.कब खिला रहे हो? वैसे भी, तुम ही तो अपने यहां के वरिष्ठ इंजीनियर हो. तुम्हारा एक बार अमेरिका जाना तो बनता ही है, यार. कुमार साहब ने एक बार फिर से शालीनता की चादर ओढ़ी, बोले, पार्टी भी दे दूंगा और मिठाईसिठाई भी खिला दूंगा मगर पहले मेरी विदेश यात्रा के इस प्रपोजल को मंत्रालय से पारित तो हो जाने दीजिए. कई बार वहां के अधिकारी अपनी कलम से गुड़गोबर कर देते हैं.

जेठालाल बोले, भई, मैं तुम्हारा मित्र नहीं, परममित्र हूं. मैं तुम्हें, तुम्हारे स्वभाव और तुम्हारे दफ्तरी धर्म निभाने के कर्म करने की प्रक्रिया को अच्छी तरह से जानता हूं. तुम जैसे लोगों का नाम तो अब कोई भी नहीं काट सकता. मुझे तो यह भी अच्छी तरह से पता है कि तुम ने मंत्रालय में भी पहले से ही सैटिंग कर रखी है.

अपने परममित्र की पोलखोल बात को सुन कर कुमार साहब बोले, अरे भई, माना कि आप मुझे, मुझ से भी अधिक जानते हैं लेकिन इस का मतलब यह तो नहीं कि आप खुलेआम मेरी सरकारी विदेश यात्रा पर लात मार दें. कम से कम खुलेआम तो ये सब मत बोलिए. यदि किसी ने सुन लिया और मंत्री महोदय या मंत्रालय में बैठे हुए सेक्रेट्रीवेके्रट्री को खबर लग गई तो हो जाएगा न मेरी इस विदेश यात्रा का सत्यानाश. आप नहीं समझते, आप की खुल्लमखुल्ला इन बातों की जरा सी भी भनक यदि मंत्रालय में पहुंच गई तो खटाई में पड़ जाएगी मेरी विदेश यात्रा. आप नहीं जानते, जब से नई सरकार बनी है, भले ही देशभर में सब के अच्छे दिन आ गए हों मगर सरकारी बाबुओं के लिए तो रोजाना ही नएनए नियमकानून व योजनाएं बनाने की बात चल रही है. यह भी सुना है कि सरकारी बाबुओं की विदेश यात्राओं पर प्रतिबंध लगाने हेतु भी योजनाएं बनाई जा रही हैं.

जेठालाल बोले, अरे, जब लगेगा प्रतिबंध तब की तब देखी जाएगी. मेरा विश्वास है कि तब तक तो तुम अपनी भारत सरकार को लाखों रुपयों का चूना लगा कर अपनी तफरीह के लिए कम से कम एक बार तो पूरे 5 दिनों के लिए अमेरिका हो कर लौट ही आओगे. तुम्हें सीखनासिखाना भी क्या है? जब तुम ने अपनी 35 साल की नौकरी और 56 साल की उम्र में यहां रह कर केवल चमचागीरी करना ही सीखा तो अमेरिका जा कर केवल 5 दिनों में तुम ऐसे कौन से अनोखे तकनीकी ज्ञान के भंडार को अपने साथ ले कर वापस आओगे जो सब का भला करेगा. वैसे भी मुझे पता है कि तुम्हारा अंगरेजीवंगरेजी के ज्ञान का स्तर 7वीं कक्षा के स्तर से ज्यादा नहीं है. वहां के अमेरिकी इंजीनियर तो फर्राटेदार अंगरेजी बोलते हैं जो अच्छेअच्छों को समझ नहीं आती, तो भला तुम्हें कैसे समझ आएगी?

खैर, तुम्हें हमारी तरफ से सरकारी खर्च पर पहली बार अमेरिका जाना मुबारक हो और भला अमेरिका जाने के इस जुगाड़ में क्याक्या किया जाए, हमें भी विस्तार से बताओ कि आखिर कैसे बना तुम्हारे विदेश जाने का यह सरकारी जुगाड़?

कुमार साहब ने भी इस बार हिम्मत कर के किसी की भी परवा न करते हुए मन ही मन भय न खाने की शपथ ली और खुश हो कर अपने परममित्र जेठालाल को विस्तार से बताना शुरू किया, भई, पता नहीं किनकिन आला अधिकारियों और अधिकारिनियों के आगे अपनी नाक रगड़नी पड़ी तब जा कर यह सुनहरा अवसर हाथ लगा है.

सच कहूं तो उम्र के साथ बुद्धि का विकास होने पर भी मैं ने चमचागीरी नहीं छोड़ी. मैं ने अपने अंदर के चमचे को सदा चमकदार बनाए रखा. उस पर कभी जंग नहीं लगने दिया. अब तो मेरा यह हाल है कि मैं सरकारी नौकरी छोड़ सकता हूं, मगर चमचागीरी करना नहीं. पिछले 4 वर्ष पहले आप के निदेशालय से स्थानांतरित हो जाने के बाद भी मैं ने इन सब आला अधिकारियों के निजी कार्यों हेतु अपने कितने जूते घिसे. आप तो इस बात का कभी अंदाजा तक नहीं लगा सकते. जानना है तो महल्ले की जूते की दुकान पर जा कर पूछो कि मैं साल में कितने जूते खरीदता हूं.

आप को क्या पता कि मैं कितनी मुश्किल से इन के निजी कार्यों को करने का वक्त निकाल पाता था. अधिकारियों और अधिकारिनियों की चमचागीरी करकर के उन से मेरी जो पीआर यानी पर्सनल रिलेशनशिप, बनी बस, वही बहुत काम आई.

पीआर अच्छी हो तो आला अधिकारी कितना भी स्वार्थी क्यों न हो, वह कभीकभी अपने अधीनस्थ पर मेहरबान हो ही जाता है. विदेश जाना किसे अच्छा नहीं लगता. आजकल विदेश जाना वह भी सरकारी खर्चे पर, यह तो एक तमगा होता है. तमगा यानी पदक. जिसे विदेश जाने वाला अधिकारी हो या कर्मचारी, उम्रभर अपने सीने पर नहीं बल्कि जबान पर रखता है. एक बात और सच कहूं तो अपने निदेशालय द्वारा खरीदे गए जिन इंजीनियरिंग इक्युपमैंट्स की मैंटेनैंस की ट्रेनिंग के लिए मुझे सरकारी खर्च पर विदेश भेजा जा रहा है. यह ट्रेनिंग तो मुझे मिलनी ही नहीं चाहिए थी क्योंकि फिलहाल मैं वर्तमान में जिस केंद्र पर कार्यरत हूं वहां रहते हुए मुझे पूरे 4 वर्ष हो गए हैं. सरकारी स्थानांतरण की नीतियों के तहत तो मेरा कभी भी मेरे वर्तमान केंद्र से स्थानांतरण हो सकता है.

औल इंडिया सर्विस में भला कौन स्थानांतरणों से बच पाता है. हर 5 साल बाद हम लोगों को इधरउधर जाना ही पड़ता है. ज्यादा खुल कर बताऊं तो मैं ने तो निदेशालय से टोडापुर स्थित केंद्र पर स्थानांतरण भी सिर्फ इसलिए लिया था कि उस समय मेरा बेटा 12वीं में था. अब उस का इंजीनियरिंग में सलैक्शन हो चुका है, इसलिए अब मुझे यहां रहने में कोई इंट्रैस्ट नहीं है.

भला हो आला अधिकारियों का जिन्होंने मेरी भविष्य की निजी योजनाओं को न समझते हुए मेरी विदेश यात्रा की रिकमैंडेशन में अपनी टांग नहीं अड़ाई और मुझे निदेशालय द्वारा केंद्र के लिए खरीदे गए नए विदेशी इक्युपमैंट्स की ट्रेनिंग हेतु चुना. बस, अब जल्दी से मेरी यह ट्रेनिंग पूरी हो जाए और इस बहाने मैं विदेश का दौरा कर आऊं, बस फिर क्या, आते ही मैं मुख्यालय को अपने गृहनिवास गोरखपुर स्थानांतरण हेतु आवेदनपत्र थमा दूंगा और गोरखपुर जा कर अपने वृद्ध मातापिता की सच्ची सेवा में लगूंगा. वैसे भी उन्हें असाध्य बीमारियों ने घेर रखा है और आप को तो पता ही है कि पिछले दिनों मैं ने वहां पर 1 फ्लैट भी खरीद लिया है. वहीं जा कर रहूंगा.

जेठालाल बोले, अरे, तो इस का मतलब साफ है कि तुम सरकारी खर्चे पर विदेश जा कर जिस ट्रेनिंग को ले कर आओगे उस का लाभ किसी को भी नहीं दोगे?

कुमार साहब बोले, भई देखो, आप को तो पता ही है कि मुझे अंगरेजीवंगरेजी तो छोड़ो इंजीनियरिंग का भी ठीक से ज्ञान नहीं है. मैं तो हिंदी के सरकारी स्कूल की शिक्षा प्राप्त अदना सा अधिकारी हूं. वह तो आप जैसे काबिल मित्रों की मदद से नोटिंगड्राफ्ंिटग सीख कर बस किसी तरह से अपनी सरकारी सेवा की अमरबेल बढ़ा कर अपना फर्ज निभा रहा हूं, अपने बच्चों का पेट पाल रहा हूं और यहां के सरकारी आला अधिकारियों की सेवासुश्रूषा कर के अपना काम चला रहा हूं, बस.

कुमार साहब की बातें सुन कर जेठालाल ने आगे कहा, खैर, जो भी हो, तुम्हें यह जान कर खुशी होगी कि कल शाम को ही तुम्हारे और तुम्हारे साथ में तुम्हारे उन आला अधिकारी साहब के भी अमेरिका के शिकागो शहर जाने के निदेशालय द्वारा आदेश कर दिए गए हैं जिन के साथ कभी तुम्हारे द्वारा रोजाना ही दोपहर 12 बजे से पहले कार्यालय न पहुंच पाने पर अच्छीखासी बहस हो गई थी. उस दिन तो तुम ने भी उन से बहुत बुराभला कहा था. यहां तक कि ताव में आ कर तुम ने उन्हें अपना स्थानांतरण टोडापुर स्थित केंद्र पर कर दिए जाने का आवेदनपत्र अग्रसारित करने के लिए थमा दिया था. उन्होंने भी आव देखा न ताव उसे तुरंत फौर्वर्ड करते हुए तुम्हें निदेशालय से तत्काल स्थानांतरित किए जाने की अपनी संस्तुति दे दी थी. परिणामस्वरूप तुम्हारा निदेशालय से टोडापुर स्थित केंद्र पर तत्काल स्थानांतरण हो गया था.

अरे जेठालालजी आप क्यों गड़े मुरदे उखाड़ रहे हैं? अब तो वह आला अधिकारी मेरे मित्र बन गए हैं और पुरानी बीती बातें तो हम दोनों कब की भुला चुके हैं. अब तो उन का बेटा और मेरा बेटा एक ही कालेज से इंजीनियरिंग कर रहे हैं. अब तो मेरा उन के घर पर आनाजाना लगा ही रहता है. मुझे पता है कि वे भी मेरे साथ अमेरिका जा रहे हैं इसलिए तो मेरी भी हिम्मत बन गई है कि चलो अमेरिका में भी अब बड़े साहब के साथ होने पर मेरा आधा काम तो वह स्वयं ही संभाल लेंगे. वे तो रुड़की के बीटेक हैं, सब समझते हैं. कोई ऐरागैरा नत्थू खैरा तो है नहीं, कुमार साहब बोले.

एक तीर से दो शिकार करना तो कोई तुम से सीखे. यार, कुल मिला कर हो तो तुम बहुत चालाक आदमी. वैसे, तुम मुझे आदमी कम सियार ज्यादा दिखते हो, जेठालालजी ने फिर से कहा.

अब, तुम कुछ भी समझो, यार, कुमार साहब बोले.

जेठालालजी बोले, मेरी बातों का बुरा मत मानना, यार. मैं तो एकदम मुंहफट आदमी हूं, जो भी मन में आता है कह देता हूं, भाषण देना मेरी आदत है और वैसे भी मैं तो तुम्हारा मित्र नहीं, परममित्र हूं. इसलिए तुम से खुल कर बातें कर लेता हूं. देखो, तुम्हें हमारी वर्षों पुरानी मित्रता का वास्ता कि तुम विदेश जा कर अपनी ट्रेनिंग के दौरान जो कुछ भी सीख कर आओगे उस ज्ञान का भागीदार मुझे बनाओगे.

कुमार साहब ने कहा, यार, मुझे तो तकनीकी हिंदी तक ठीक से समझ नहीं आती तो अमेरिका के अंगरेज इंजीनियरों की तकनीकी अंगरेजी भला कैसे पल्ले पड़ेगी. फिर भी यह बात पक्की रही कि वहां पर मुझे अमेरिकी इंजीनियरों द्वारा समझाई गई जितनी भी बात समझ आ पाएगी, उतनी सब बातें मैं तुम्हें वहां से लौट कर अवश्य समझा दूंगा.

थोड़े दिन बाद जब भारत के वरिष्ठ इंजीनियर कुमार साहब अमेरिका की एक कंपनी में ट्रेनिंग लेने पहुंचे तो वहां उन्हें उन अमेरिकियों की अंगरेजी की गिटरपिटर समझ नहीं आई. उन्होंने अपने साथ गए अंगरेजी भाषा में दक्ष आला अधिकारी की मदद ले कर अमेरिकी इंजीनियरों से अपनी अज्ञानता जाहिर करते हुए कहा, भई, यहां हम भारतीयों को कुछ ऐसा टैक्निकल ज्ञान दो जो हमें आसानी से समझ आ जाए क्योंकि हम भारतीय इंजीनियरों को बीटेक डिगरीधारी होने पर भी इंजीनियरिंग इक्युपमैंट्स की इंजीनियरिंग ड्राइंग के ब्लू पिं्रट्स पढ़ना तक नहीं आता है. आजकल हमारे भारत में तो कोई भी ऐरागैरा नत्थू खैरा बीटेक कर लेता है. सो, हम ने भी कर लिया.

हमारे भारत के इंजीनियरिंग कालेज और विश्वविद्यालय डिगरी देते नहीं, थोक में बांटते हैं. और तो और, हमारे यहां तो इंजीनियरिंग की डिगरियां अब बेची भी जाने लगी हैं. रुपया हो तो अब भारत में जो चाहे खरीद लो.

अमेरिकी इंजीनियर कुमार साहब की बात अच्छी तरह से समझ गए और उन्होंने इक्युपमैंट्स के मैंटेनैंस के नाम पर सभी भारतीय इंजीनियरों को केवल यह सिखा दिया कि कभी भी किसी भी इक्युपमैंट में लगा हुआ लाल इंडीकेटर न जलता हुआ देखो तो सीधे ही उस मौड्यूल यानी यूनिट के स्क्रू खोल कर बस उसे दूसरी नई यूनिट में बदल लो, बस. और इस से अधिक कुछ भी नहीं. इसलिए आजकल किसी भी पुरानी यूनिट को खोल कर पहले की तरह इंजीनियरिंग ड्राइंग देख कर उसे ठीक करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है. वहां उन सभी भारतीय इंजीनियरों ने केवल इक्युपमैंट्स के यूज ऐंड थ्रो तकनीक का विशेष प्रशिक्षण ज्ञान प्राप्त किया.

कुमार साहब अमेरिका से ट्रेनिंग ले कर भारत लौटे तो जेठालालजी ने उन से फोन कर के कुशलक्षेम पूछी और प्रश्न किया, बताओ, कब आ जाऊं तुम्हारे घर, तुम्हारी विदेशी ट्रेनिंग का संपूर्ण ज्ञान लेने?

कुमार साहब ने कहना शुरू किया, भई जेठालालजी, आप बुरा न मानें तो सरकारी खर्चे पर विदेश से लौट कर मेरे पास आप को बताने के लिए सिर्फ इतना ही है कि आप जब कभी भी अपने इंजनियरिंग अनुभाग में अपने जिस इक्युपमैंट के मौड्यूल को बदलने के लिए उस के 4 स्कू्र खोलें उन्हें एक स्टील की साफ कटोरी में अवश्य रखते जाएं ताकि वापस लगाते समय उन में से किसी एक के भी खोने की गुंजाइश बिलकुल भी न रहे क्योंकि आमतौर पर तो भारतीय इंजीनियरों की आदत होती है कि वे जब कभी भी किसी इक्युपमैंट को निरीक्षण या परीक्षण या फिर उसे ठीक करने के लिए खोलते हैं तो बाद में उसे बंद या फिट करते समय 4 स्कू्र में से केवल 2 लगा कर ही काम चला देते हैं.

 

यह कह कर कि अब 2 इधरउधर कहीं खो गए, मिल ही नहीं रहे तो कोई बात नहीं, 2 से ही काम चलेगा. 2 स्कू्र पर भी टिका ही रहेगा. सरकारी खर्च पर विदेश जा कर अपनी ट्रेनिंग के दौरान अमेरिकी इंजीनियरों से मैं ने एक बात तो पक्के तौर पर सीखी कि किसी भी इक्युपमैंट को बदलने या संभालने के लिए जब भी उसे खोला जाए तो प्लास, कटर और स्कू्रड्राइवर के साथसाथ 1 स्टील की कटोरी भी रख ली जाए जिस में खोले जा रहे इक्युपमैंट के सभी स्क्रू सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखे जा सकें और बाद में उन्हें यथास्थान वापस लगाया जा सके. वहां पर मैं ने उन को स्कू्र के साथ लगने वाले छोटेछोटे वाशरों तक को भी संभाल कर लगाते हुए देखा.

 

अपने यहां भारत में तो एक बार किसी मौड्यूल को ठीक करने के लिए खोला जाता है तो फिर स्कू्र के साथ उस के वाशर को तो संभाल कर लगाने का रिवाज ही नहीं है. मैं ने वहां पर भले ही अधिक कुछ न सीखा हो लेकिन इक्युपमैंट के स्कू्र और उस के वाशर के महत्त्व को बखूबी समझा.

 

जेठालालजी फिर बोले, इस का मतलब है कि तुम्हारे पास मुझे देने के लिए केवल स्कू्र व उस के वाशर को लगाने के तकनीकी ज्ञान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है. तो क्या फायदा हुआ तुम्हारे विदेश जा कर ट्रेनिंग ले कर आने का? तुम्हारे ऊपर भारतीय सरकार ने अपने लाखों रुपए फुजूल में ही खर्च कर दिए और तुम विदेश जा कर भी ढाक के तीन पात ही रहे. तुम जैसे तो सरकार की आंखों में धूल ही झोंक सकते हैं बस, और इस से अधिक कुछ नहीं. ईमानदारी तो तुम्हारी रगों में है ही नहीं.

 

इस बार कुमार साहब तपाक से बोले, भई, नाराज क्यों होते हो. तुम्हें समझाने के लिए मेरे पास नया संपूर्ण तकनीकी ज्ञान भले ही न हो लेकिन दिखाने के लिए मेरे पास अमेरिका के शिकागो शहर के बेहतरीन होटल और शहर के विशेष स्थलों के फोटो व वीडियो हैं. और हां, वहां से मैं ढेर सारी अमेरिकी चैकलेट ले कर आया हूं. खानी हो तो कभी भी आ जाना. वैसे, यदि एक पूरा डब्बा चाहिए तो तुम्हें जल्दी ही घर आना पड़ेगा वरना तुम्हें तो पता ही है मेरी आदत, मैं ये सब अपने उन आला अधिकारियों के लिए विदेश से लाद कर लाया हूं जिन्होंने मेरा सरकारी खर्चे पर विदेश जा कर ट्रेनिंग लेने का प्रपोजल मंत्रालय से अनुमोदित कर प्रस्तावित करवाया और सरकारी दौरे पर ट्रेनिंग हेतु विदेश जाने का सरकारी पासपोर्ट भी बनवाया. यदि मैं विदेश से लौट कर उन्हें कम से कम एक विदेशी चैकलेट का डब्बा भी भेंट न करूं तो भला मैं उन से आगे अपना गोरखपुर के लिए स्थानांतरण कैसे करवा पाऊंगा और फिर कैसे होगी मेरे मातापिताजी की सेवा और गोरखपुर वाले निजी फ्लैट में रहने का सुख भला कैसे भोग पाऊंगा.

 

जेठालालजी ने इस बार फिर गंभीर हो कर कहा, तुम मेरे परममित्र न होते तो घर आ कर निकलवा लेता वे सारे के सारे 2 लाख रुपए जो तुम्हें 5 दिन की विदेश यात्रा पर जाने के बदले में कार्यालय द्वारा डीए के रूप में भुगतान किए गए थे क्योंकि तुम जैसों को तो न सरकारी आला अधिकारी कभी समझ सकते हैं, न मंत्रालय में बैठे हुए सेक्रेट्रीवेक्रेट्री, सिवा मेरे.

 

इस बार कुमार साहब थोड़ा सा गुस्सा होते हुए बोले, देखो मित्र, अपनी नाराजगी किसी और पर निकालना. बातबात पर मुझे क्यों कोसते हो. वह तो निदेशालय के परचेज सैक्शन के आला अधिकारियों से जा कर पूछो कि जब वे अपने निदेशालय द्वारा किसी भी केंद्र हेतु कोई भी नया विदेशी इक्युपमैंट खरीदते हैं तो निविदा की स्वीकृति में ट्रेनिंग के नाम पर अपने यहां के 10-10 भारतीय इंजीनियरों को विदेश भेज कर केवल औनऔफ व 4 स्कू्र खोल कर मौड्यूल्स के बदलने की प्रक्रिया समझने के लिए भारत सरकार के मंत्रालय की जेब को प्रति व्यक्ति करोड़ों रुपए का चूना क्यों लगवाते हैं. जो काम वहां के केवल 1 या 2 इंजीनियर यहां भारत में आ कर समस्त भारतीय इंजीनियरों को अपने विभागीय ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट में रह कर दे सकते हैं तो फिर यहां से 10-10 इंजीनियरों को सरकारी खर्च पर विदेश भेज कर आखिर क्यों ट्रेनिंग करवाई जाती है? विदेश जा कर मूलरूप से विदेशी कंपनी का साक्षात दृश्यावलोकन और वहां कार्यरत सुंदर विदेशी अंगरेजी अर्धनग्न बालाओं को देख कर क्या यहां के भारतीय इंजीनियर ज्यादा काबिल बन जाते हैं?

मेरी नजर में तो फिर सच कहूं तो ढाक के तीन पात ही होते हैं, यहां के सभी इंजीनियर, चाहे वे बीटैक पास हों या एमटैक. ऊपर से जिस विभाग में 4-4 साल बाद विभागीय स्थानांतरण कर दिए जाने का नियम हो तो फिर कहने की क्या. और रही विदेशी चैकलेट की बात तो वह तो आजकल भारत में भी खूब मिलती है, कोई भी खरीद कर उन्हें भेंट दे सकता है. वैसे भी विदेशी कंपनियां अपना अप्रूवल फाइनल करवाने के चक्कर में यहां आ कर विदेशी चैकलेट, सिगरेट और इलैक्ट्रौनिक्ससिलैक्ट्रौनिक्स आइटम गुपचुप इन आला अधिकारियों को समयसमय पर भेंट करती ही रहती हैं.

मित्रता में मधुर संबंध बने रहें, मन ही मन यह सोचते हुए जेठालालजी ने कुमार साहब से कहा, भई, कोई बात नहीं. तुम्हें इस से क्या लेनादेना, तुम्हारा तो काम बन गया. तुम ने तो अपने इस सरकारी कार्यकाल में सरकारी खर्चे पर अपना विदेश जाने का उल्लू सीधा कर ही लिया न. फिर काहे की नाराजगी. मुझे पता है कि अब तुम्हारा सम्मान होगा. लोग तुम्हें इज्जत देंगे इसलिए नहीं कि तुम चतुर हो बल्कि इसलिए कि तुम ने सरकारी सेवा में रहते हुए अपनी चतुराई से समयसमय पर अपना उल्लू सीधा करने का पाठ बखूबी सीखा और इस का भरपूर लाभ भी उठाया. तो कैसा रहा, विदेश यात्रा का यह सरकारी जुगाड़, आप भी प्रयास करें, आजकल जुगाड़ में बहुतकुछ होता है.


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