हिंदुस्तान को आजाद हुए साठ से ज्यादा साल हो गये। लेकिन, अी तक हिंदुस्तानी लोग अपने नेताओं को समझे नहीं हैं। नेता ने कीमती जमीन अपने बेटे को दे दी। लोगों को इसमें बेईमानी नजर आ रही है। यह जनता की नजर का दोष है। अगर, जनता की नजर सही होती तो उसे इसमें जिम्मेदारी और भरोसा नजर आते। जरा सोचिए, नेता ने जो जमीन अपने बेटे को दी वह किसकी है? सरकार की! और, सरकार किसकी है? नेता की! तो अपनी जमीन, अपने बेटे को दे कर नेता ने क्या गलत किया? यहां कुछ लोग कह सकते हैं कि वह जमीन सरकार की नहीं, देश की होती है। अगर, इस तर्क को सही मान लिया जाए तो भी नेता ने कोई गलती नहीं की। जमीन देश की है और नेता देश की सेवा करता है। देश की जमीन बेटे को दे कर नेता उसे भी देश सेवा करने के लिए प्रेरित कर रहा है। देश सेवा बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। और, जिम्मेदारी का काम किसी भरोसे के आदमी को ही सौंपा जा सकता है। नेता को अपने बेटे पर भरोसा है! आप बताइए, आपको भरोसा करना हो तो आप किस पर करेंगे− अपने बेटे पर या अपने पड़ोसी के बेटे पर? अपने बेटे पर ही न? वही तो नेता ने किया!
पुल बन रहा था। अचानक गिर पड़ा। लोग कहते हैं नेता सीमेंट खा गया। खा गया होगा। लेकिन, इसके लिए उसे दोष देना ठीक नहीं होगा। यहां भी नेता को सही तरीके से समझने की जरूरत है। असल में, नेता एक गर्भवती स्त्री के समान होता है। हंसिए मत, इस बात पर गौर कीजिए। जी हां, नेता गर्भवती स्त्री के समान होता है! गर्भवती स्त्री के पेट में बच्चा होता है, और नेता के पेट में देश। जैसे गर्भवती स्त्री का मन की−की बड़ी विचित्र चीजें खाने को करता है, वैसे ही नेता का भी करता है। इसीलिए, कोई मवेशियों का चारा खा जाता है तो कोई टेलीफ़ोन। जिसका मन सीमेंट खाने को करता है, वह सीमेंट खा जाता है। विचित्र चीजें खा कर भी नेता गर्भवती स्त्री से अलग होता है। गर्भवती स्त्री का पेट भर जाता है, नेता का की नहीं भरता। पेट न भरने को भी सही अर्थ में समझना जरूरी है। सही अर्थ यह है कि नेता आधे पेट देश की सेवा करता है। और इसके लिए जनता को नेताओं का आार मानना चाहिए। जरा सोचिए, नेता आधे से न करके, पूरे पेट से देश सेवा करते तो देश का क्या हाल होता!
लोग कहते हैं कि नेता देश को गड्ढे में धकेल रहे हैं। फिर वही नासमझी की बात! हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदुस्तान एक भाग्यवादी देश है। यहां अधिकांश लोग मानते हैं कि वही होता है जो किसी की किस्मत में लिखा होता है। अगर देश के भाग्य में गड्ढे में गिरना लिखा होगा तो वह गड्ढे में गिरेगा। उसके लिए नेताओं को दोष देना सही नहीं है। दोष तो देश के भाग्य का है। नेता तो निमित्त मात्र हैं।
हिंदुस्तान को आजाद हुए साठ से ़ज्यादा साल हो गये। लेकिन हिंदुस्तानियों ने अब तक राजनीति को समझा नहीं है। राजनीति कोई उत्पादक गतिविधि नहीं है। उलटे उसे चलाने में खर्चा बहुत होता है। रैली करने में पैसा लगता है। पोस्टर लगाने में पैसा लगता है। चमचे पालने में पैसा लगता है। इतना पैसा नेता को कहां से मिल सकता है? किसीको ईमानदारी का कोई रास्ता मालूम हो तो नेताओं को बता दो। वैसे बेईमानी सिर्फ़ मजबूरी में नहीं की जाती, वह कुछ लोगों का स्वभाव भी होती है। पर, जब जनता खुद ही बेईमानों को चुनती है तो फिर उनको दोष क्यों देती है? प्रसिद्ध कवि सूर्यानु गुप्त का एक दोहा है− दुनिया को मत दोष दो, टूटे जो अरमान/दुनिया के काबिल बनो बेटा सूरजभान। नेताओं के संर्द में इस दोहे को यों बदला जा सकता है− नेता को मत दोष दो, टूटे जो अरमान/नेता के लायक बनो, प्यारे हिंदुस्तान।