रांगेय राघव का रचना संसार इतना विस्तृत है कि उनकी तुलना सिर्फ राहुल सांस्कृत्यायन से की जा सकती है। कथाकार, बुद्धिजीवी राजेंद्र यादव ने एक बार कहा था कि रांगेय राघव की तुलना हिंदी संसार में सिर्फ राहुल जी (राहुल सांकृत्यायन) से की जा सकती है लेकिन उन्हें तो उम्र भी बहुत मिली थी। रांगेय राघव ने मात्र 39 साल की उम्र में उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, रिपोर्ताज जैसी विविध विधाओं में करीब 150 कृतियों को अंजाम दिया। उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे। तमिल कुल में जन्म लेकर उन्होंने उत्तर भारत पर सांस्कृतिक विजय पाई। रांगेय राघव तिरूपति के पुजारी परिवार से थे और भरतपुर (राजस्थान) के महाराज ने उनके पूर्वजों ने अपने यहां आमंत्रित किया था। इस पर उन्हें गर्व भी था जिसका जिक्र उन्होंने अपनी कविता श्मैं पुरातन कुल में जात हुआश् में किया है। उनका जन्म हालांकि आगरा में 17 जनवरी 1923 को हुआ था और उन्होंने गोरखनाथ पर अनुसंधान किया था।
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन श्रश् का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव। वर्मा ने कहा कि रांगेय राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने करीब करीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ। उनकी रचनाओं में स्त्री पात्र अत्यंत मजबूत होती थीं और लगभग पूरा कथानक उनके इर्द−गिर्द घूमता था। सिंधु घाटी सभ्यता के एक प्रमुख केंद्र मोअन−जो−दड़ो पर आधारित उनका काल्पनिक उपन्यास ‘मुर्दों का टीला’ से लेकर कहानी तक में स्त्री पात्र कथा संसार की धुरी होती थी। साथ ही स्त्री के चिंतन विश्व को दर्शाती उनकी कृतियां श्रत्ना की बातश्, श्लोई का ताना और लखिमा की आंखेंश् बेमिसाल हैं जो क्रमशः तुलसी की पत्नी, कबीर की प्रेरणा और विद्यापित की प्रेमिका की दृष्टि से पेश विश्व−दर्शन है।
उस वक्त जो ऐतिहासिक दृष्टि भगवती चरण वर्मा और आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपनी रचनाओं में पेश कर रहे थे उसका जवाब था रांगेय राघव का ‘मुर्दों का टीला’ और ‘यशोधरा की जीत’ आदि रचनाएं। पौराणिक कथाओं पर आधारित कृति ‘अंतर्मिलन की कथाएं’ के आमुख में रांगेय राघव ने लिखा है− मैंने ये कहानियां विशाल पौराणिक साहित्य में से चुनी हैं। इनको मैंने इसलिए लिखा है कि इनमें मुझे इतिहास की बहुत−सी गुत्थियां सुलझती मिली हैं। हमारी संस्कृति में प्रेरणा का केवल एक ही स्रोत नहीं है। महाभारत युद्ध के बाद गौतम बुद्ध, फिर गौतम बुद्ध से गुप्त सम्राटों के काल तक निरंतर भारत में जातियों का अंतर्मिलन चला। उन्होंने कहा पहली बार आर्य, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, गरुड़, पिशाच, असुर और अनेक जातियां परस्पर घुल मिल गईं। इनके मिलन से इनके देवता भी मिल गए। विष्णु, शिव, गरुड़, पार्वती, वासुकी, कुबेर, पुलस्त्य, वृत्र, शाक्त इत्यादि में परस्पर मैत्री भाव उपस्थित हुए।
इसी आमुख में राघव ने लिखा है, दूसरी बार भारत में यवन, शक, कुषाण, पहलव आदि जातियां आईं जो भारत में घुल−मिल गईं। यहां मैंने पहले दौर के अंतर्मिलन को प्रकट करने वाली कथाएं लिखी हैं। हिंदी में द्रविड़ संस्कृति का विस्तार से विश्लेषण करने वाले अपने किस्म के इस पहले लेखक ने शिव की अवधारणा के बारे में कहा है, महादेव पर यद्यपि अनेक मत हैं किंतु मुझे स्पष्ट लगता है कि वह योग का देवता द्रविड़ संपत्ति ही थी, दक्षिण में ही तांडव हुआ था। शिव के लिंग की पूजा की आर्यों ने शिश्न पूजा कह कर निंदा की थी। बाद में उन्होंने स्वयं इसे स्वीकार कर लिया। एक समानांतर सत्य प्रकट करने के लिए लिखी गई ये कृतियां बेमिसाल हैं। छायावादेत्तर युग के लेखक रांगेय राघव का पूरा नाम तिरुमल्लै नेत्रकम वीर राघव आचार्य था। 19 वर्ष की आयु में बंगाल के अकाल पर लिखा गया उनका रिपोर्ताज तूफानों के बीच बेहद मशहूर हुआ। उन्हें हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947), डालमिया पुरस्कार (1954), उत्तर प्रदेश सरकार पुरस्कार (1957−59), राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार और मृत्यु के पश्चात महात्मा गांधी पुरस्कार मिला।