निरंकुशता पर अंकुश जरूरी

asiakhabar.com | February 8, 2019 | 5:19 pm IST
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आप सबने एक कहावत सुनी होगी ‘लम्हों ने खता की, सदियों ने सजा पाई।’ मानव सभ्यता के इतिहास में जब कोई शासक कोई बड़ी भूल कर देता है, तो लंबे समय तक समाज उसके परिणाम भुगतता रह जाता है। नेता का काम समाज को बांटना नहीं, समाज को जोड़ना होता है, लेकिन हमारा दुर्भाग्य है कि अपने क्षुद्र निहित स्वार्थों की खातिर नेताओं ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया। नेता का काम वंचित वर्गों को समर्थ बनाना होता है, रेवडि़यां बांटना नहीं। दलितों और कमजोर आय वर्ग के लोगों को रोजगार के काबिल बनाने के बजाय आरक्षण की रिश्वत देना, खेती को लाभप्रद व्यवसाय बनाने के बजाय किसानों को मुफ्त बिजली और ऋण माफी का झुनझुना पकड़ाना, करदाताओं और देश की शेष जनता के साथ ही नहीं, इन लाभार्थियों के साथ भी द्रोह है। चुनाव से पहले सरकारी खजाना लुटाने, मतदाता को रिश्वत बांटने और अपनी कठिनाइयां भुला देने के लिए उसे अफीम चटाने की परंपरा बहुत दुखदायी है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पंजाब में अकाली दल को कमजोर करने के लिए इंदिरा गांधी ने अपने पिट्ठू ज्ञानी जैल सिंह की मार्फत भिंडरावाले को खड़ा किया था।

बोतल से बाहर निकला वो जिन्न प्रदेश में आतंकवाद का कारण बना। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की सिफारिशें मानकर आरक्षण की आग लगा दी और समाज में विभाजन की लकीर खींच दी। चुनाव जीतने के लिए नरेंद्र मोदी ने सोशल मीडिया विशेषज्ञों की टीम का सहारा लिया, जो दिन-रात विपक्षी नेताओं का मजाक उड़ाने, उन्हें बुद्धिहीन सिद्ध करने और भ्रष्टाचारी बताने के काम में जुट गई। सच और झूठ को मिलाकर फेसबुक, ह्वाट्सऐप और ट्विटर आदि सोशल मीडिया मंचों पर इन लोगों ने एक तरह से आतंक-सा मचा दिया। यही नहीं, धर्म और जाति के आधार पर धु्रवीकरण की ऐसी मुहिम चली कि पहले से ही बंटे हुए समाज के कई वर्ग एक-दूसरे के दुश्मन बन गए। फेक न्यूज अब इतने तरह की हो गई है कि आम आदमी जाने-अनजाने उसका शिकार बन ही जाता है। विशुद्ध झूठ, अर्द्धसत्य, प्रसंग से हट कर, फोटोशॉप की गई तस्वीरें, संपादित वीडियो टेप, किसी के नाम पर बांटे गए झूठे बयान आदि फेक न्यूज का हिस्सा हैं।

समस्या की विकरालता समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उन्नत तकनीक के माध्यम से इन्हें ऐसा स्वरूप दिया जा सकता है कि झूठ और सच में फर्क दिखता ही नहीं। फिल्मों और विज्ञापनों में डबिंग आर्टिस्ट का प्रयोग पुरानी बात है, लाफ्टर चैलेंज जैसे शो में किसी नेता की आवाज और तौर-तरीकों की नकल आपको हंसा सकती है, लेकिन यही कला अब झूठ गढ़ने और नफरतें फैलाने का साधन बन गई है। तकनीक की सहायता से किसी भी व्यक्ति का वीडियो बनाकर उसमें किसी भी तरह के संवाद फिट किए जा सकते हैं, वे बातें भी कहते हुए दिखाया जा सकता है, जो उस व्यक्ति ने कभी भी कही ही नहीं। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के दुरुपयोग से यह सब संभव है। चेहरा बदलना, चेहरे के भाव बदलना, संवादों में मनचाहा फेरबदल करना इतना आम हो गया है कि आप सहज में ही झूठ पर भी विश्वास कर लें।

खेद की बात है कि लोग बिना सोचे-समझे झूठ के इस जलजले के विस्तार में सहायक हो रहे हैं। आपके पास एक ह्वाट्सऐप संदेश आया, उसने आपको आंदोलित किया और चिंता और उत्साह के मिले-जुले भावों के वशीभूत आपने उसे आगे फारवर्ड कर दिया। वह संदेश जो किसी एक व्यक्ति या एक टीम ने गढ़ा था, मिनटों में कहां से कहां फैल जाता है और दंगे तक करवा डालता है। समस्या यह है कि कोई कानून भी इसकी रोकथाम के लिए काफी नहीं है। यूं भी लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक अहम अधिकार है। यदि हम झूठ और प्रपंच के इस जाल से छुटकारा चाहते हैं, तो खुद हमें जिम्मेदार बनना होगा और अब हम सब को मिलकर ही इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। हां, यह सही है कि कांग्रेस राज में भ्रष्टाचार हुआ।

यह भी सही है कि मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, मायावती, अखिलेश यादव, ममता बनर्जी आदि ने मुस्लिम समाज को अपना मुख्य वोट बैंक मानकर नीतियां बनाईं या बयान दिए, लेकिन यह भी सही है कि यूपीए शासन में व्याप्त भ्रष्टाचार से दुखी जनता ने अन्ना हजारे आंदोलन का समर्थन किया और भाजपा तथा आम आदमी पार्टी ने उस आंदोलन के समर्थन का लाभ उठाकर सत्ता हासिल की। पहले अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बने और फिर भ्रष्टाचार रहित अच्छे दिनों का सपना दिखाकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए। विडंबना यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को देशभक्ति बताया जा रहा है। मोदी सरकार ने समाज के एक वर्ग पर अघोषित आपातकाल लगा रखा है। यह एक प्रकार की सेक्शनल इमर्जेंसी है, जिसमें कानून और सर्वोच्च न्यायालय तक को अमान्य किया जा रहा है। असहमति जताने वाले लोगों को जेलों में डाला जा रहा है।

भ्रष्टाचार निरोध के मामले में भी ऐसा ही है। सिर्फ विरोधी दलों के नेताओं के भ्रष्टाचार पर ही कार्रवाई हो रही है, वरना यह कैसे संभव था कि जय शाह की कंपनी के अकल्पनीय विस्तार की कोई जांच न होती? जय शाह पर प्रवर्तन निदेशालय कोई कार्रवाई न करता? उसके घर और कार्यालय पर सीबीआई का छापा न पड़ता? यह कैसे संभव होता कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी में पुल गिर जाने पर 60 से भी अधिक लोगों की मौत को चुपचाप भुला दिया जाता और कोई जांच न होती, कोई गिरफ्तारी न होती? यह कैसे संभव होता कि व्यापम जैसे बड़े घोटाले में हर गवाह और जांच अधिकारी की असहज मृत्यु पर नरेंद्र मोदी का कोई बयान न आता और कोई कार्रवाई न होती? यह कैसे संभव होता कि भाजपा को मिले विदेशी फंड को कानूनी रूप दे दिया जाता और कोई जांच न होती? यह कैसे संभव होता कि नरेंद्र मोदी द्वारा घोषित 150 से अधिक योजनाओं में से 80 प्रतिशत से भी अधिक पूरी तरह से या आंशिक रूप से असफल होने पर भी उसका दोष कांग्रेस और नेहरू ही नहीं, जनता तक के सिर मढ़ दिया जाता? सच यह है कि आज फेक न्यूज की ही तरह नरेंद्र मोदी भी बेलगाम हैं और यही हमारी चिंता है।

सवाल यह नहीं है कि सन् 2019 का चुनाव कौन जीतेगा। असल सवाल यह है कि चुनाव जीतने वाले व्यक्ति की निरंकुशता पर अंकुश लगाने के लिए क्या किया जा सकता है? समाज को मिलकर इसी समस्या का हल ढूंढना है।

 


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